Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi Author(s): Ratanchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 4
________________ पर से कुछ भी संबंध नहीं देखो, प्रयोजन की दृष्टि से ही गुण एवं गुणभेद को पृथक्-पृथक् पक्ष में खड़ा किया है। इनमें गुणों को तो अभेदपने दृष्टि के विषय में सम्मिलित कर दिया और गुणभेद को दृष्टि के विषय में निकाल दिया है, पृथक कर दिया है; क्योंकि निर्विकल्प की ग्राहक दृष्टि भेद को विकल्पात्मक होने से स्वीकार नहीं करती। जो-जो पर्यायार्थिकनय के विषय हैं, वे भले द्रव्यांश हों, गुणांश हों या पर्यायांश हों; सब पर्यायें ही हैं, सबकी एक पर्याय संज्ञा है। ये सब भेद खड़ा करते हैं, अतः ये दृष्टि के विषय में सम्मिलित नहीं हो सकते। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि नयों की भाषा में कथन की गई एक अपेक्षा मुख्य एवं शेष अनुक्त अपेक्षायें गौण होती हैं। परमशुद्ध निश्चयनय के विषय में वस्तु का एक, अभेद, सामान्य और अखण्ड पक्ष मुख्य रहता है और यही दृष्टि का विषय बनता है तथा वस्तु का विशेष, भेद, अनेक और खण्ड-खण्ड पक्ष पर्यायार्थिकनय का विषय है और यह दृष्टि के विषय में सम्मिलित नहीं होता अर्थात् गौण रहता है। तात्पर्य यह है कि - दृष्टि के विषय में पर्यायार्थिकनय की विषयवस्तु, जिसके विशेष, भेद, अनित्य और खण्ड-खण्ड- ऐसे चार अंश होते हैं; इनकी पर्याय संज्ञा है और दृष्टि के विषय में समकित नहीं होते तथा जो सामान्य आदि चार अंश हैं, उनकी द्रव्यसंज्ञा है और वे दृष्टि के विषय में सम्मिलित हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने आचार्य कुन्दकुन्द की गाथा 'पज्जयमूढा हि पर समया' की व्याख्या करते हुए कहा है कि उक्त गाथा में असमानजातीय द्रव्य पर्यायों को मुख्य किया है। असमानजातीय द्रव्य पर्यायों में मनुष्य, देव, नारकी और तिर्यंच आदि ग्रहण किया है। इन पर्यायों रूप में नहीं हूँ १. प्रवचनसार गाथा ९३ की तत्त्वप्रदीपिका, पृष्ठ ऐसा कहकर द्रव्य - पर्यायों को मुख्य किया है। इन्हीं पर्यायों को पृथक् करने की बात की है। वहाँ उन्होंने जब अशुद्ध राग-द्वेषादि पर्यायों की प्रथकता की भी बात नहीं की तो केवलज्ञान जैसी अशुद्ध पर्याय की प्रथकता की चर्चा का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इसीप्रकार प्रवचनसार गाथा ११४ में 'पज्जयगऊण किच्चा' लिखा है जिसका अर्थ है - 'पर्याय को गौण करके' अर्थात् जो पर्याय को गौण करके अकेले द्रव्य के पक्ष को ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिकनय है तथा जो द्रव्य को गौण करके पर्याय को ग्रहण करता है वह पर्यायार्थिकनय है। यहाँ स्पष्ट रूप से गौण करने को लिखा है, अभाव करने को नहीं। यदि कहीं व्यवहार का निषेध परक अर्थ निकलता है तो उसे लौकिक व्यवहार में न उलझने के अर्थ में ही ग्रहण करना, नयों के निषेध के अर्थ में ग्रहण नहीं करना । जैसेकि शादी-विवाह, तिया तेरहवाँ अथवा ऐसे ही अन्य औपचारिकता की पूर्ति में अपने जीवन के अमूल्य क्षण बर्बाद नहीं करने के अर्थ में कहा गया है ऐसा समझना। व्यापार-धंधों में उन उलझना ऐसा निषेध परक अर्थ करना । नयों के भेद परक विषय का प्रतिपादन का निषेध नहीं मानना । नयों के प्रतिपादन में तो मुख्य-गौण की ही व्यवस्था है, निषेध की नहीं । समयसार गाथा ७३ की टीका में जो सामान्य विशेषात्मक आत्मा को दृष्टि का विषय कहा है, वहाँ सामान्य का अर्थ दर्शन एवं विशेष का अर्थ ज्ञान है जबकि अन्यत्र जहाँ विशेष का अर्थ भेद होता है, वह पर्यायार्थिकनय का विषय बनने से पर्याय में सम्मिलित होता है, इसकारण वह दृष्टि के विषय में सम्मिलित नहीं है। प्रश्न : 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग लोक में एवं आगम में भी तो अनेक अर्थों में होता है। उनमें दृष्टि का विषय कौन-सा द्रव्य है ? उत्तर : यह तो पहले कह ही आये हैं, कि प्रत्येक वस्तु स्वचतुष्टयमयPage Navigation
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