Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 3
________________ - विशेषात्मक, स्वक्षेत्र - असंख्यातप्रदेशी अभेद, स्वकाल-नित्यानित्यात्मक और स्वभाव एकानेकात्मकता । यहाँ यह भी ज्ञतव्य है कि प्रमाण ज्ञान सर्वग्राही होता है और इसमें अपेक्षा नहीं लगती, क्योंकि प्रमाणज्ञान में मुख्य-गौण की व्यवस्था नहीं है । देखो, अपना आत्मा भी एक वस्तु है, द्रव्य है। इसके भी अपने स्वचतुष्टय हैं। सामान्य-विशेषात्मकता इसका द्रव्य है, असंख्यात प्रदेशी अभेद इसका क्षेत्र है, नित्यानित्यात्मकता इसका काल है और एकानेकात्मकता इसका भाव है। ध्यान रहे, सम्पूर्ण चतुष्टयमय वस्तु का नाम भी द्रव्य है और उन चार में एक द्रव्यांश का नाम भी द्रव्य है। यहाँ ध्यान देने योग्य विशेष बात यह है कि असंख्यात प्रदेश क्षेत्र ऐसा नहीं कहा; क्योंकि असंख्यात प्रदेश कहने से तो असंख्यात का भेद खड़ा होता है और भेद खड़ा होने से आत्मा का अभेद स्वरूप खण्डित होता है, जबकि दृष्टि का विषय अखण्ड है, अभेद है, भेदरूप नहीं। असंख्य प्रदेशों के अभेद का नाम वस्तु का क्षेत्रांश या क्षेत्र है। इसी तरह अनन्त गुणों का अभेद आत्मा का स्वभाव है तथा अनादि काल से लेकर अनन्तकाल तक पर्यायों का अनुस्यूति से रचित प्रवाह आत्मा का स्वकाल है। इसप्रकार समान्यात्मक, एकात्मक, त्रिकाली और असंख्यात प्रदेशी वस्तु (आत्मा) ही दृष्टि का विषय है, श्रद्धा का श्रद्धेय है एवं ध्यान का ध्येय है। इसके विपरीत विशेष, अनित्यता, अनेक और भेद - यद्यपि ये भी वस्तु के ही धर्म हैं, किन्तु ये पर्यायार्थिकनय का विषय होने से दृष्टि के विषय में सम्मिलित नहीं हो सकते। जो-जो पर्यायार्थिकनय के विषय हैं, भले द्रव्यांश हों, गुणांश हो या पर्यायांश हों सब पर्यायें ही हैं। अतः ये दृष्टि के विषय में सम्मिलित नहीं होते । आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने जीव की प्रमत्त अप्रमत्त दशाओं और गुण भेद से भिन्नता की बात कहकर भगवान आत्मा को पर्याय से भिन्न बताया है क्योंकि प्रमत्त व अप्रमत्त दशायें तो आत्मा को पर्यायें हैं ही, गुणभेद भी पर्यायार्थिकनय का विषय होने से पर्याय ही है और जो-जो पर्यायार्थिकनय का विषय बनेगे, उन सबकी पर्याय संज्ञा है, क्योंकि गुणार्थिक नाम का न तो कोई है ही नहीं तथा गुणभेद में भेद की मुख्यता के कारण उसको द्रव्यार्थिक का विषय बनाया नहीं जा सकता। द्रव्यार्थिकनय का विषयम मात्र द्रव्य का मात्र अभेद, अखण्ड एक और सामान्य पक्ष ही बनता है। ध्यान रहे समयसार की सातवीं गाथा में भगवान आत्मा में विद्यमान गुणों का निषेध करना इष्ट नहीं है, क्योंकि अनन्तगुणों का अखण्डपिण्ड तो भगवान आत्मा है ही । निषेध तो गुणभेद का है, क्योंकि गुणभेद पर्यायार्थिकनय का विषय होने से पर्याय ही है। प्रश्न: यदि दृष्टि के विषयभूत आत्मा में पर्याय सम्मिलित नहीं है तो फिर आत्मा के द्वारा जानने का काम भी संभव नहीं होगा; क्योंकि जानना तो स्वयं पर्याय है । जानने रूप पर्याय के कारण ही तो आत्मा को ज्ञायक कहा जाता है न ! सातवीं गाथा में स्पष्ट कहा है कि आत्मा में न ज्ञान है, न दर्शन है, न चारित्र है; वह तो मात्र ज्ञेय है। मूल गाथांश इसप्रकार है। “णवि णाणं न चरित्तं, ण दसणं जाणगो शुद्धो ।” १ उत्तर : ध्यान रहे, पर्याय को मात्र दृष्टि के विषय में से निकाला है, वस्तु में से नहीं, द्रव्य में से नहीं तथा गौण करने के अर्थ में ही पर्याय के अभाव की बात कही गई है और उक्त सातवीं गाथा में भी गुणभेद से भिन्नता की बात कहकर भी पर्याय से ही पार बताया है, गुणों से भिन्न नहीं बताया; क्योंकि गुणभेद का नाम भी तो पर्यायार्थिकनय का विषय होने से पर्याय ही है। १. समयसार गाथा ६ एवं ७ २. आ. कुन्दकुन्ददेव ने

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