Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 21
________________ पर से कुछ भी संबंध नहीं जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्यपुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।। परिणममानस्य चितचिदात्मकः स्वयमपि स्वकर्भावः। भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि ।। तात्पर्य यह है कि जीव की तत्समय की योग्यता रूप उपादान-कारण से ही कार्य होता है; क्योंकि द्रव्य या पदार्थ स्वयं परिणमनस्वभावी हैं। उन्हें अपने परिणमन में परद्रव्यरूप निमित्तों की अपेक्षा नहीं होती। प्रश्न २८ : निमित्तों को अकर्ता या अकिंचित्कर कहने से क्या लाभ है? जगत में तो जहाँ देखो वहीं निमित्तों के कर्तृत्व का ही बोलबाला है। कृतज्ञता ज्ञापन, आभार प्रदर्शन, धन्यवाद आदि निमित्तों के कर्तत्व ही तो देन है। उपादान तो किसी को दिखाई भी नहीं देता और उससे किसी का परिचय भी नहीं है। अत: उपादान की महिमा आयेगी भी कैसे कार्य की निष्पन्नता में निमित्तों का स्थान अनभिज्ञ जगत की समझ में यह बात नहीं आ सकती। इसकारण वह परद्रव्यों के सान्निध्य से भ्रमित हो जाता है। अन्तरंग-बहिरंग, प्रेरक-उदासीन, वलाधान, प्रतिबन्धक आदि सभी प्रकार के निमित्त-उपादान में कुछ भी फेर-फार, परिणमन या कार्य नहीं करते। समस्त परद्रव्यरूप निमित्त 'गतेधर्मास्तिकायवत्' उदासीन ही हैं। प्रश्न २९ : समयसार गाथा २७८ एवं २७९ तथा इनकी टीका में तो स्पष्ट लिखा है कि - निमित्त से ही कार्य होता है। वे मूल गाथाएँ इसप्रकार उत्तर : जो हेतु कार्य के निष्पन्न होने में कुछ भी सहयोग या समर्पण न करे; जिसकी उपस्थितिमात्र हो। ऐसे कार्य के अनुकूल परद्रव्यों को अकिंचित्कर हेतु कहते हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं करता; इसकारण उदासीन व प्रेरक आदि सभी प्रकार के निमित्तों को अकिंचित्कर या अकर्ता कहा गया है। सभी द्रव्य तो स्वाधीन-स्वसहाय हैं ही; उनमें एकसाथ रहनेवाले अनंत गुण भी अपने-अपने में पूर्ण स्वाधीन हैं । गुणों में भी एक गुण को दूसरे गुण की आधीनता व अपेक्षा नहीं है। अत: गुण भी परनिरपेक्ष-असहाय ही हैं। इसकारण एक गुण भी दूसरे गुण में कुछ भी फेर-बदल नहीं कर सकता। जब वस्तु पर की अपेक्षा या सहायता बिना ही अपना कार्य करने में सक्षम है तो फिर निमित्तों की अपेक्षा ही क्यों रखे ? और निमित्त भी बना वजह किसी अन्य के कार्यों में हस्तक्षेप करेगा ही क्यों ? किन्तु वस्तुस्वरूप से जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमदि राग मादीहिं। रगिजदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीतिं दव्ववेहिं ।।२७८।। एवं माणी सुद्धो ण सयं परिणमदि राग मादीहिं । राइज्जदि अण्णेहिं दु सो रागादि तिं दोसेहिं ।।२७९।। जिसप्रकार स्फटिक मणि शुद्ध होने से लालिमा रूप से अपने आप परिणमित नहीं होता; किन्तु अन्य लालिमायुक्त द्रव्यों से लाल किया जाता है, उसीप्रकार ज्ञानी (आत्मा) शुद्ध होने से अपने आप रागादि रूप नहीं परिणमता; परन्तु अन्य रागादि दोषों से वह रागादि रूप किया जाता है। उत्तर : यद्यपि निर्मल स्वभाववाला स्फटिकमणि अकेले अपने कारण ही लालिमा आदि रूप नहीं होता; परद्रव्य का संसर्ग होने से यानि लाल-पीले फूल के संसर्ग से उसमें लाल-पीली झाई होती है। परद्रव्य के संयोग या निमित्त की मुख्यता से यह कथन बिल्कुल सही है; परन्तु वस्तुस्वरूप की ओर से देखें तो उसमें जो लाल-पीली झांई पड़ती है, वह मात्र लाल-पीले फूल के कारण भी नहीं हुई है, यदि वह मात्र स्फटिक की झांई लाल-पीले फूलों के संसर्ग से ही हई हो तो लाल-पीले फलों के संसर्ग से लकडी में भी लाल-पीली झांई पड़नी चाहिए। पर ऐसा तो होता नहीं है; क्योंकि लकड़ी की वैसी योग्यता ही नहीं है। मात्र स्फटिक में ही वैसी योग्यता होती है। अतः

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