Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 22
________________ पर से कुछ भी संबंध नहीं स्पष्ट है कि यह लाल-पीले रूप होना स्फटिक की ही अपनी पर्यायगत योग्यता प्रश्न ३० : टीका में तो और भी स्पष्ट लिखा है कि - 'आत्मा परद्रव्य के द्वारा ही शुद्ध स्वभाव से च्युत करके रागादिरूप परिणमित किया जाता है। उत्तर : हाँ, लिखा है; परन्तु यह तो निमित्त की भाषा है, निमित्त सापेक्ष कथन है। वास्तव में तो स्फटिक मणि स्वयं अपनी वर्तमान योग्यता से परद्रव्य के निमित्त से लालिमायुक्त परिणमित होता है। निमित्त की अपेक्षा लाल-पीले फूलों को कारण कहा जाता है। वस्तुत: निमित्त ने उसमें कोई विलक्षणता नहीं की। प्रश्न ३१ : यदि ऐसा है तो निमित्त से कार्य होता है' - ऐसा क्यों कहा? उत्तर : कार्य के काल में निमित्त मात्र उपस्थित होता है। बस, इसीकारण निमित्त से कार्य होता है - ऐसा कहा जाता है; परन्तु निमित्त पर में (उपादान) में करता कुछ नहीं है। जिसप्रकार अग्निरूप ईंधन को जलाने में निमित्त तो है, पर कर्ता नहीं है। यदि ईंधन में जलने की योग्यता न हो तो अग्नि उसे नहीं जला सकती। जिसप्रकार अभ्रक में जलने की योग्यता नहीं है तो अग्नि इसे नहीं जला पाती। जिसप्रकार ईंधन अपने ज्वलनशील स्वभाव से ही जलता है, उसमें अग्नि की निमित्तता होती है, उसीप्रकार उपादान में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप कार्य अपनी उपादानगत योग्यता से होते हैं और सच्चे देव-शास्त्र-गुरु उसमें निमित्त होते ही हैं। वे उसमें कुछ करते नहीं हैं। ऐसा ही सहज निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है। निमित्त का यथार्थ ज्ञान कराने के लिए यहाँ यह कहा जा रहा है कि विशेष जानने के लिए देखें, प्रवचनरत्नाकर भाग -८, पृष्ठ २४६-२४७ कार्य की निष्पन्नता में निमित्तों का स्थान भगवान आत्मा शुद्ध चिदानन्दघन प्रभु निमित्त कारण के अभाव में अकेला स्वयं राग-द्वेषरूप परिणमन नहीं करता, किन्तु आत्मा जब अपने अशुद्ध उपादान से स्वयं रागरूप परिणमता है, तब कर्म का रागरूप उदय नियम से निमित्त होता ही है। बस, इसीकारण यह कहा जा रहा है कि आत्मा द्रव्य के द्वारा ही रागादि रूप परिणमता है। प्रश्न ३२ : जब आत्मा में रागादि विकार स्वद्रव्य के कारण नहीं होते। तो आत्मा परद्रव्य के द्वारा ही रागादिरूप परिणमता है। ऐसा कहने में क्या दोष है? उत्तर : हाँ, ऐसा व्यवहार से, निमित्त की मुख्यता से कहने में कोई दोष नहीं है। निमित्त की मुख्यता से ऐसा ही कहा जाता है; परन्तु वस्तुत: देखा जाय तो उस समय जीव में रागादि रूप अवस्था होने की ही तत्समय की योग्यता है, परद्रव्य तो फिर भी निमित्त मात्र ही है। पर ने उसे रागादि रूप परिणमाया नहीं है। ___व्यवहार से ऐसा कहा जाता है कि पर ने विकार कराया अथवा कर्मोदय से विकार हुआ; परन्तु यह सब उपचार कथन है। समयसार की तीसरी गाथा में भी आया है कि - एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को छूता भी नहीं है। प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य में रहकर अपने अनन्त धर्मों के चक्र को चूमता है; परन्तु पर द्रव्य का कभी भी स्पर्श नहीं करता। प्रश्न ३३: समयसार कलश १७५ में तो यह स्पष्ट लिखा है कि - जिस तरह सूर्यकान्त मणि सूर्य के निमित्त बिना अपने आप अग्निमय नहीं होता उसी भांति आत्मा पर के निमित्त बिना अपने को रागादि का निमित्त कारण कभी भी नहीं होता। उसमें निमित्तकारण तो परद्रव्य का संग ही है। ऐसा वस्तुस्वभाव प्रकाशमान है। फिर भी लोग निमित्त का निषेध क्यों करते हैं?

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