Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 24
________________ पर से कुछ भी संबंध नहीं 'द्रव्यमोह का उदय होने पर भी यदि शुद्ध आत्मभाव के बल से मोहभाव रूप परिणमन हो तो बन्ध नहीं होता तथा कर्म के उदयभाव से बंध नहीं होता। यदि उदयमात्र से बंध होता हो तो संसारी के सर्वथा ही कर्म का उदय विद्यमान होने से सदा ही बंध होता रहेगा, मोक्ष कभी होगा ही नहीं। अंतरंग कारण से कर्म (कार्य) की उत्पत्ति कारण है। कषाय का परिमणन तो निमित्तमात्र है, उपचरित कारण है; क्योंकि प्रकृति विशेष होने से उक्त प्रकृतियों का यह स्थिति बंध होता है। सभी पदार्थ एकान्त से बाह्य अर्थ ( पदार्थ) की अपेक्षा करके ही उत्पन्न नहीं होते। अन्यथा शालिधान्य के बीज से जौ के अंकुर की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होगा। इसलिए अन्तरंग कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है - ऐसा जानना। प्रश्न ३७: तो क्या आत्मा के परिणामों का कर्मों के साथ निमित्तनैमित्तिक संबंध भी नहीं है? उत्तर : हाँ, वास्तविक बात तो ऐसी ही है क्योंकि जिसको अपने निज स्वभाव के साथ स्व-स्वामी सम्बन्ध प्रगट हो गया है, एक ज्ञायकभावपने ही जिसका परिणमन हुआ है - ऐसे धर्मी पुरुष का कर्म के साथ के निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धका विच्छेद होता जाता है तथा जिसे स्वभाव की दष्टि नहीं हुई - ऐसा अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव ही कर्म के साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध रूप परिणमन करता है। साधक जीव को जैसे-जैसे निज स्वभाव में एकता का परिणमन दृढ़ होता जाता है, वैसे-वैसे ही कर्म का संबंध छूटता जाता है और क्रमश: कर्म के सम्बन्ध रहित हो जाता है, सिद्धपद प्राप्त कर लेता है। प्रश्न ३८ : यदि निमित्त सचमुच कुछ नहीं करते तो उन्हें कारण कहा ही क्यों? उत्तर : संयोग अथवा निमित्त को उपचार से कारण कहा है वह वास्तविक कारण नहीं, क्योंकि वस्तुत: वे उपस्थित अवश्य रहते हैं, परन्तु करते कुछ भी नहीं। प्रश्न ३९ : यदि अकेले उपादान से ही कार्य होता है तो फिर शास्त्री में निमित्त की चर्चा की है क्यों? १. प्रवचनसार गाथा १०२ अंतरंग कारण से कर्म (कार्य) की उत्पत्ति प्रश्न ३६ : एक ही कषाय परिणाम के निमित्त से होनेवाली भिन्नभिन्न प्रकृतियों का स्थितिबंध एकसमान न होकर भिन्न-भिन्न क्यों होता है ? जैसे कि - ज्ञानारवणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, स्त्रीवेद, मनुष्यगति आदि कर्म प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध तीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम कहा है। मिथ्यात्वकर्म का उत्कृष्ट स्थितिबंध सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागरोपम तथा अनन्तानुबंधी आदि सोलह कषायों की प्रकृति का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध चालीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम कहा है। उत्तर : प्रकृतियों का अपना अन्तरंग ( उपादान ) कारण ही वास्तविक

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