Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ दृष्टि का विषय : सारांश ( यद्यपि अध्यात्म जगत से अपरिचित, अनजान पाठकों को उपर्युक्त शीर्षक नया लग सकता है, अटपटा भी लग सकता है; किन्तु अध्यात्म रसिकों को इसकी चर्चा नई नहीं है, अपरिचित भी नहीं है तथा मात्र बौद्धिक व्यायाम भी नहीं है। इस विषय का ऊहापोह इससे अपरिचित और सुपरिचित सभी के लिए मात्र उपयोगी ही नहीं, आत्मार्थियों के लिए परम आवश्यक है, अत्यन्त जरूरी है। अध्यात्म रसिक ब्र. यशपालजी की विशेष मांग पर कुछ दिन पूर्व डॉ. भारिल्ल ने इस विषय पर ९ प्रवचन किए थे। वे प्रवचन ब्र. यशपालजी को इतने अच्छे लगे कि उन्होंने इन प्रवचनों को कैसिटों से लिपिबद्ध कराकर एवं सम्पादित करके 'दृष्टि का विषय ' नाम से प्रकाशित भी कर दिया, जो मूलतः पठनीय है। उन्हीं का संक्षिप्त सारांश मैंने जो स्वान्तः सुखाय लिखा है, संक्षिप्त रुचिवालों के लिए यहाँ प्रकाशित किया है। मुझे विश्वास है कि इसे पढ़ने में लगाया समय तो सार्थक होगा ही, यह मानव जीवन भी सार्थक और सफल हो सकता है। ) 'दृष्टि' शब्द के मूलत: दो अर्थ होते हैं। एक 'श्रद्धा' और दूसरा 'अपेक्षा' प्रथम 'श्रद्धा' के अर्थ में 'दृष्टि के विषय' की बात करें तो हमारी दृष्टि का विषय क्या हो ? अर्थात् हमारी सत् श्रद्धा का श्रद्धेय, हमारे परम शुद्ध निश्चयनय के विषयरूप ज्ञान का ज्ञेय और हमारे परम ध्यान (निश्चय धर्मध्यान) का ध्येय क्या हो ? हम अपनी श्रद्धा किस पर समर्पित करें, किसे अपने निश्चयनय के ज्ञान का ज्ञेय बनाये और किसे अपने निर्विकल्प ध्यान का ध्येय बनाये ? जिससे कि हमारा मोक्षमार्ग सध सके; रत्ननत्रय की आराधना, साधना एवं प्राप्ति हो सके, हम प्राप्त पर्याय में पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकें। जो व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि 'दृष्टि का विषय' मात्र सम्यग्दर्शन का विषय है, वे भ्रम में हैं। यह मात्र सम्यग्दर्शन का विषय नहीं, अपितु यह सत् श्रद्धा परम शुद्ध निश्चयनय के ज्ञान का ज्ञेय और परम निर्विकल्प ध्यानरूप सम्यक् चारित्र का विषय है, निश्चय रत्नत्रय का विषय है। 'द्रव्यदृष्टि' और 'पर्याय दृष्टि' वाक्यों में जो 'दृष्टि' शब्द का प्रयोग है, वह 'श्रद्धा' का वाचक या सूचक नहीं; अपितु अपेक्षा का सूचक है। 'द्रव्यदृष्टि' अर्थात् द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से और 'पर्यायदृष्टि' अर्थात् पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से । शास्त्रों में बहुत-सी अपेक्षाओं से पर्याय का वर्णन आता है, इसलिए पर्याय शब्द का सही अर्थ समझना आवश्यक है। पर्यायार्थिकनय का विषय जो-जो वस्तु बनती है, उन सभी को पर्याय संज्ञा है, चाहे वह द्रव्य हो, गुण हो या पर्याय हो। जैसेकि - जो भारत का नागरिक हो, वह भारतीय है। भले, वह हिन्दू, मुस्लिम हो, सिख हो या ईसाई हो, उसी तरह जो-जो पर्यायार्थिकनय के विषय हों, वे सब पर्यायें हैं। देखो, सम्पूर्ण जिनवाणी नयों की भाषा में निबद्ध है और नयों के कथन में मुख्य गौण की व्यवस्था अनिवार्य होती है, क्योंकि वे अनन्त धर्मात्मक वस्तु का सापेक्ष कथन ही कर सकते हैं, प्रमाण की विषयभूत वस्तु के अनेक (अनन्त) धर्मों को एकसाथ नहीं कह सकते। अतः दृष्टि के विषय को समझने के लिए पहले हमें नयों की उन अपेक्षाओं को जानना होगा, जो हमें दृष्टि के विषय को अर्थात् सम्यक् श्रद्धा के श्रद्धेय को, निश्चयनय के विषयभूत ज्ञान को और परमध्यान के ध्येय को बताते हैं । यहाँ ज्ञातव्य है कि - प्रत्येक वस्तु (छहों द्रव्य) अपने-अपने स्वचतुष्टयमय होती है। स्वचतुष्टय का अर्थ है वस्तु का स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव । इन चारों सहित होने से ही द्रव्य को स्वचतुष्टमय कहते हैं। वस्तु इन स्वचतुष्टयमय होने से ही सत् है। इस चतुष्टय में प्रत्येक के दो-दो भेद हैं- वस्तु का स्वद्रव्य - सामान्य

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 ... 52