Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 12
________________ बड़ी-बड़ी भ्रान्तियाँ हैं। स्वतंत्र स्वसंचालित वस्तुव्यवस्था से अनजान जगत विश्व-व्यवस्था का कर्तृत्व अपने माथे पर मढ़ लेता है। जगत के कार्यों का स्वयं कर्ता बन बैठता है, जबकि जगत का प्रत्येक कार्य स्वतन्त्र है, स्वाधीन है। होता स्वयं जगत परिणाम, मैं पर का करता क्या काम। दूर हटो परकृत परिणाम, ज्ञायक भाव लहूँ अभिराम ।। ऐसी स्वाधीन, स्वावलम्बी वस्तुव्यवस्था की सही श्रद्धा ही दुःख दूर करने का सही उपाय है। विश्वव्यवस्था का स्वरूप जैनदर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं। छह द्रव्यों में जीवद्रव्य अनन्त हैं । पुद्गलद्रव्य अनन्तानन्त हैं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य एवं आकाशद्रव्य एक-एक हैं। कालद्रव्य असंख्यात हैं। इन सभी द्रव्यों के समूहरूप यह विश्व अनादि-अनन्त, नित्य परिणमनशील एवं स्वसंचालित है। इन द्रव्यों का परस्पर एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध होने पर भी ये सभी द्रव्य पूर्ण स्वतंत्र हैं, स्वालम्बी हैं। कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के अधीन नहीं है। वस्तुतः इन द्रव्यों पर का परस्पर में कुछ भी संबंध नहीं है। इस विश्व को ही लोक कहते हैं। इसीकारण आकाश के जितने स्थान में ये छह द्रव्य स्थित हैं, उसे लोकाकाश कहते हैं। शेष अनन्त आकाश अलोकाकाश है। विश्व का प्रत्येक द्रव्य या पदार्थ पूर्ण स्वतन्त्र एवं परिणमनशील है। हमारा तुम्हारा आत्मा भी एक स्वतन्त्र स्वावलम्बी द्रव्य है, वस्तु है, परिणमनशील पदार्थ है । स्वभाव से तो यह आत्मद्रव्य अनन्त गुणों का समूह एवं अनन्त शक्ति सम्पन्न है, असीम सुख का समुद्र और ज्ञान का अखण्ड है; परन्तु अपने स्वभाव का भान न होने से एवं पराधीन दृष्टि होने से अभी विभावरूप परिणमन कर रहा है। इसकारण दुःखी है। द्रव्यों या पदार्थों के इस स्वतंत्र परिणमन को पर्याय या कार्य कहते हैं। कर्म, अवस्था, हालत, दशा, परिणाम, परिणति भी कार्य के ही नामान्तर हैं; पर्यायवाची नाम हैं। सुख-दुःख का स्वभाव-विभावरूप कोई भी कार्य हो, वह बिना कारणों से नहीं होता और एक कार्य के होने में अनेक कारण होते हैं। उनमें कुछ कारण तो समर्थ एवं नियामक होते हैं और कुछ आरोपित । आरोपित कारण मात्र कहने के कारण हैं, उनसे कार्य निष्पन्न नहीं होता। उनकी कार्य के निकट सन्निधि मात्र होती है। जैनदर्शन में इन कारणों की मीमांसा निमित्त व उपादान के रूप में होती है। कार्य-कारण : स्वरूप एवं सम्बन्ध प्रश्न २: ये निमित्तोपादान अथवा कारण कार्य क्या हैं, इनका ज्ञान क्यों आवश्यक है ? उत्तर : ये निमित्त-उपादान कार्य की उत्पादक सामग्री के नाम हैं। अतः इन्हें जिनागम में कारण के रूप में वर्णित किया गया है। इन निमित्तोपादान कारणों का यथार्थ स्वरूप जाने बिना कर्ता-कर्म सम्बन्धी निम्नांकित अनेक भ्रान्तियों के कारण हमें वीतराग धर्म की प्राप्ति संभव नहीं है। जैसे - प्रथम तो, निमित्तोपादान को जाने बिना स्वावलम्बन का भाव जाग्रत नहीं होता । दूसरे, पराधीनता की वृत्ति समाप्त नहीं होती । तीसरे, मोक्षमार्ग का सम्यक् पुरुषार्थं स्फुरायमान नहीं होता । चौथे, निमित्त उपादान के सम्यक् परिज्ञान बिना जिनागम में प्रतिपादित वस्तुव्यवस्था को भी सम्यक् रूप में समझना सम्भव नहीं है। पाँचवे, इनके सही ज्ञान बिना या तो निमित्तों को कर्त्ता मान लिया

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