Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 7
________________ पर से कुछ भी संबंध नहीं पर्याय नहीं है। इसीतरह सर्वज्ञता पर्याय और सर्वज्ञत्व शक्ति गुण है, सर्वदर्शित्व (सर्वदर्शीपना) पर्याय है और सर्वदर्शित्व नाम की शक्ति गुण है इनमें जो-जो पर्यायें हैं वे दृष्टि के विषय में सम्मिलित नहीं है और सर्वज्ञत्व, सर्वदर्शित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अभेद रूप से गुण (धर्म) दृष्टि के विषय में सम्मिलित हैं क्योंकि ये सब गुण के ही रूपान्तर हैं। प्रवचनसार की गाथा ९३ की तात्पर्यवृत्ति टीका में लिखा है - “अन्वयिनो गुणः अथवा सहभुवा गुणा इति गुणलक्षणं । व्यतिरेकणः पर्याया अथवा क्रमभुवा पर्याया इति पर्याय लक्षणम् ।” क्रमशः गुण व पर्याय के लक्षण हैं हम पर्याय के नाम पर गुणों को भी दृष्टि के विषय में से न हटा दें, इसलिए गुण व पर्याय का स्वरूप भी, जानना जरूरी है। शास्त्रों में गुणों को भी पर्याय नाम से कहा गया है। पर्यायें दो प्रकार की होती हैं - १. सहभावी २. क्रमभावी । सहभावी पर्याय गुण को कहते हैं और क्रमभावी पर्याय को कहते हैं। अतएव हम पर्याय के नाम पर सभी पर्यायों को भी दृष्टि के विषय में से नहीं निकाल नहीं सकते। यदि हम पर्याय का लक्षण नहीं समझेंगे तो किस पर्याय को हम दृष्टि के विषय में सम्मिलित करें और किसे सम्मिलित नहीं करें यह निर्णय नहीं कर सकेंगे। अतः हमें गुण व पर्यायों का सम्यक्स्वरूप समझना एवं उनका प्रयोग करने का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। जैनदर्शन में नय को मुख्य गौण करना गाड़ी के ब्रेक (अवरोधक) और गतियंत्र (एक्सीलेटर) के समान है और मुख्य-गौण करने का अधिकार गाड़ी के ड्राइवर की भांति नयों के प्रयोग कर्ता-वक्ता को ही होता है। आगम भी इसी का समर्थन करता है "वक्तुरभिप्रायो नयः' अर्थात् वक्ता के अभिप्राय को नय कहते हैं। यह वक्ता के अभिप्राय पर निर्भर किस नय का कब / कहाँ कैसे करना करता है। उदाहरणार्थ - 'रात्रिभोजन नहीं करना चाहिए' यह कथन व्यवहारनय का है कि निश्चय नय का ? यदि इस व्यवहारनय के कथन को कभी भी मुख्य नहीं करेंगे तो इसका अर्थ यह हो जायेगा कि सभी को रात में खाने देना चाहिए। यदि हम ऐसा कहेंगे कि "शाम को भोजनालय बन्द हो जायेगा" तो व्यवहार नय मुख्य हो जायेगा और व्यवहारनय मुख्य करना नहीं है। - अब यहाँ कोई कहे कि अध्यात्मियों को व्यवहारनय का प्रयोग नही करना चाहिए। यदि इस बात का निर्णायक हम पण्डित टोडरमलजी को माने तो उन्होंने कहा कि यदि इस सिद्धान्त का अध्ययन करना है तो गोम्मटसार का स्वाध्याय करना और यदि अध्यात्म जानना है तो आत्मख्याति का स्वाध्याय करना ।' पण्डित टोडरमलजी ने जिन अमृतचन्द्राचार्य को सर्वश्रेष्ठ माना है, उन्हीं अमृतचन्द्र ने 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' ग्रन्थ में व्यवहारनय के कथनों का अत्यधिक प्रयोग किया है। हाँ, इतना अवश्य है कि आत्मानुभूति के काल में निश्चय को ही मुख्य रखना चाहिए, व्यवहार को नहीं। पण्डित टोडरमलजी ने रहस्यपूर्ण चिट्ठी में 'वृहद् द्रव्यसंग्रह' की एक गाथा उद्धृत की है, जो इसप्रकार है - "तच्चाणोसण काल समय बुज्झेहि जुत्तिमग्गेण । णो आएइण समये परचक्खो अणुहवो जम्हा ।। " तत्त्व के अन्वेषण के काल में शुद्धात्मा को नय-प्रमाण (युक्ति) द्वारा पहले जाने, पश्चात् आराधना के समय, अनुभव के काल में नय-प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष अनुभव है।

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