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'विमुख होना है। इसलिए गुरुदेव का चिन्तन सामाजिक, शैक्षणिक एवं राजनीतिक आदि सभी क्षेत्रों में गतिशील रहा है। उन्होंने धर्म एवं अध्यात्म को जीवन-व्यवहार में साकार रूप दिया है । इसलिए बाह्य दिखावे के लिए किए जानेवाले प्राणहीन क्रिया-काण्ड, दम्भपाखण्ड, अन्ध-विश्वास के विरोध में उनका क्रान्तिकारी तेजस्वी स्वर सदा मुखर रहा है। और आज भी मुखर है । वे पूर्णतः कष्टसहिष्णु है, मान-अपमान से बहुत ऊपर उठे हुए हैं । वे आलोचना - प्रत्यालोचना सब कुछ सह सकते हैं, लेकिन दम्भ, पाखण्ड एवं सत्य को नहीं सह सकते । वस्तुतः उनका जीवन प्रारम्भ से ही सत्य के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित रहा है। इसलिए उनका जीवन उनके ही स्वर में मुखरित है --
"कोई कुछ भी करे, मुझे क्या जो अपने में रम उसको दुनिया से
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कहे-सुने या -- लेना-देना । जाता है, क्या लेना ?
वैर-भावना नहीं किसी से, इक सत्य से प्यार मुझे है । अस्तु दम्भ पर चोटें करना, जन्म सिद्ध अधिकार मुझे है ।"
इसलिए गुरुदेव ने जीवन में धर्म के बाह्य रूप को -- जो युग के अनुसार बदलता रहता है, महत्त्व न देकर प्रज्ञा को, ज्ञान को, विवेक एवं विचार को महत्त्व दिया है, जिसके आलोक में धर्म के सम्यक् स्वरूप को समझा जा सके और उसे जीवन में क्रियान्वित करके मोह-म से मुक्त हुआ जा सकें । प्रस्तुत ग्रन्थ " पन्ना समिखए धम्मं " में प्रज्ञा - ज्योति प्रज्वलित है। गुरुदेव के सर्वतोमुखी समग्र चिन्तन का स्वरूप साकार है प्रस्तुत ग्रन्थराज में । प्रस्तुत ग्रन्थ तीन खण्डों-- दार्शनिक दृष्टिकोण, धार्मिक एवं आध्यात्मिकदृष्टिकोण तथा सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनैतिक दृष्टिकोण, में विभक्त हैं । कहना चाहिए जीवन के सभी पक्षों को इस एक ही ग्रन्थ में उजागर कर दिया है पूज्य गुरुदेव ने । दार्शनिक दृष्टिकोण के अन्तर्गत -- प्रात्म चेतना : आनन्द की तलाश में, साधना का केन्द्र-बिन्दु : अन्तर्मन, चेतना का विराट् रूप, तीर्थकर मुक्ति पथ का प्रस्तोता, अरिहन्त, अरहन्त और प्ररुहन्त, तत्त्वमसि, प्रात्मा और कर्म, बन्ध-पमोक्खो तुज्झ प्रज्झत्थेव अवतारवाद या उतारवाद, जैन दर्शन ग्रास्तिक दर्शन, अनेकता में एकता, जैन-दर्शन की समन्वय परम्परा, विश्वतोमुखी मंगलदीप : अनेकान्त आदि दार्शनिक विषयों पर सूक्ष्मता से सर्वांगीण स्पष्ट विचार प्रस्तुत किए हैं। इन दार्शनिक विषयों पर प्रायः सभी सम्प्रदायों के विचारकों ने काफी विचार चर्चा की है । परन्तु, पूज्य गुरुदेव के विचार इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि उन्होंने तटस्थ उदार एवं समन्वयात्मक दृष्टि से विचार प्रस्तुत किए हैं । न इसमें किसी परम्परा का आग्रह है, न साम्प्रदायिक, मान्यताओं का दुराग्रह है और न अपने-पराए की भेद-बुद्धि है, यही विशेषता है गुरुदेव के चिन्तन की ।
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धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण में - जीवन परिबोध का मार्ग धर्म, आध्यात्मिक
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