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स्वरूप का निर्णय करने के लिए प्रज्ञा को ही महत्त्व दिया। गौतम द्वारा दिया गया वह समाधान उत्तराध्ययन के तेवीसवें अध्ययन में इस प्रकार है-
"पन्ना समिखए धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छ्यं ।"
-- तत्त्व का निर्णय जिसमें होता है, ऐसे धर्म-तत्त्व की समीक्षा प्रज्ञा करती है । पूज्य गुरुदेव ने भी प्रस्तुत ग्रन्थ में पृष्ठ ३१६ पर लिखा है -- “ जब मानव - चेतना पक्ष-मुक्त होकर, इधर उधर की प्रतिबद्धताओं से अलग होकर सत्याभिलक्षी चिन्तन करती है, तो उसे अवश्य ही धर्म-तत्त्व की सही दृष्टि प्राप्त होती है । पातञ्जल योगदर्शन में इसे ऋतंभरा प्रज्ञा कहा है । ऋत् अर्थात् सत्य को वहन करनेवाली प्रज्ञा अर्थात् शुद्ध ज्ञान चेतना ।
माना कि साधारण मानव की प्रज्ञा की भी एक सीमा है । वह असीम और अनन्त नहीं है। फिर भी उसके बिना यथार्थ सत्य के निर्णय का अन्य कोई आधार भी तो नहीं है । अन्य जितने आधार हैं, वे तो सूने जंगल में भटकाने जैसे हैं श्रौर परस्पर टकरानेवाले हैं । श्रतः जहाँ तक हो सके, अपनी प्रज्ञा के बल पर ही निर्णय को प्राधारित रखना चाहिए | अन्तिम प्रकाश उसी से मिलेगा ।"
वस्तुतः सत्य को देखने-परखने का एक मात्र आधार प्रज्ञा ही है । आगमों का आधार लेकर निर्णय करेंगे, तब भी प्रमुखता तो प्रज्ञा की ही रहेगी । आगमों में उल्लिखित शब्द तो जड़ हैं । प्रज्ञा ही उनमें निहित अर्थ को प्रकाशित करती है । इसलिए सत्य को समझने एवं सम्यक् रूप से साधना पथ को अपनाने के लिए प्रज्ञा अर्थात् ज्ञान-चेतना ही मुख्य आधार हैं । महाश्रमण तीर्थंकर महावीर की दिव्य देशना में स्पष्ट रूप से कहा गया है -- "बिना ज्ञान के बिना प्रज्ञा के चारित्र के गुण नहीं होते ।"--
" नाणेण विणा न हंति चरणगुणा"
-- उतरा. २८।३०
चारित्र क्या है ? मोह-क्षोभ से, राग-द्वेष से मुक्त होकर समभाव में रमण करना । प्रवृत्ति मात्र से निवृत्त होना चारित का एकान्त स्वरूप नहीं है । प्रवृत्ति शरीर का देह
अर्थात् मन, वचन, काय योग का धर्म है । वह तो रहेगी ही । उससे इन्कार किया नहीं जा सकता । अतः निवृत्त होना है साधक को, राग-द्वेष से मोह-क्षोभ के विकल्पों से, न कि बाह्य प्रवृत्ति से । देह से होनेवाली प्रवृत्ति पाप नहीं है, पाप है उस प्रवृत्ति में संलग्न राग-द्वेषात्मक विकल्प । इसलिए देह में रहते हुए, देह की प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होते हुए भी देहातीत रहना, उनमें लिप्त नहीं होना ही साधना है, चारित्र है और यह अवस्था प्रज्ञा से प्राप्त होती है ।
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इसलिए पूज्य गुरुदेव का दिव्य आघोष है, कि कर्म करो, परन्तु उसमें लिप्त मत हो । कर्म के प्रति आसक्ति एवं कर्म करने का अहंकार प्रर्थात् मैं ही सब कुछ करता हूँ — बन्धन है । और अनासक्त भाव से, सहज कर्तव्य बुद्धि से किया जानेवाला कर्म धर्म है । इस स्थिति में कर्म करते हुए भी साधक प्रकर्म अवस्था में रहता है । यह प्रवृत्ति •भी निवृत्ति है ।
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