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पुरोवाचा --प्राचार्य श्री चन्दनाश्री
पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री अमरमुनिजी प्रबुद्ध विचारक, प्रज्ञा-पुरुष, तत्त्वज्ञ, महान् दार्शनिक एवं साहित्य-शिल्पी है। गुरुदेव का आगम दर्शन, सिद्धान्त एवं साहित्य का अध्ययन किसी परम्परा के क्षुद्र दायरे में सीमित नहीं है। जैन पागम, नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य एवं संस्कृत टीका ग्रन्थों तथा दर्शन-शास्त्र का तो गंभीर अध्ययन किया ही है, साथ ही वेद, प्रारण्यक, उपनिषद, गीता एवं वैदिक-दर्शन तथा बौद्ध-दर्शन एवं त्रिपिटक का भी सांगोपांग अध्ययन किया है। वे भारतीय वाङ्मय के महान् अध्येता है और अभी ८५ वर्ष की उम्र में भी उनके अध्ययन एवं चिन्तन की धारा निरन्तर प्रवहमान है। वे भारत के एक महान् दार्शनिक है, विद्वान् है।
परन्तु, दार्शनिक से भी ऊपर गुरुदेव प्रबुद्ध विचारक है । विचार-चिन्तन उनका सहज स्वभाव है। विचार, दर्शन से भी महत्त्वपूर्ण है। दर्शन एक दृष्टि है, वस्तु के स्वरूप को अवलोकन करने की, और उसे जन-जन के समक्ष प्रस्तुत करने की, एक विधा है । परन्तु, उस देखे गए वस्तुस्वरूप की यथार्थता, सत्यता एवं वास्तविकता का निर्णय विशुद्ध विचार एवं निर्मल प्रज्ञा के द्वारा ही हो सकता है। यदि दृष्टि साफ, स्वच्छ और निर्मल नहीं है, प्रज्ञा से अनुप्राणित नहीं है, तो दर्शन-शास्त्र तर्क के जाल में उलझा भी देता है। उस भ्रम-जाल को सुलझाने की भी क्षमता दर्शन में नहीं, प्रज्ञा में है। कोई भी पागम, शास्त्र, दार्शनिक ग्रन्थ एवं सर्वश्रेष्ठ प्राचार-शास्त्र मानव मन की भ्रान्ति को दूर नहीं कर सकता है। एकमात्र प्रज्ञा ही, निर्मल विचार-धारा ही मानव मन को यथार्थ बोध करा सकती है। लोक-प्रदीप भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य श्रमण केशीकुमार श्रावस्ती के तिन्दुक उद्यान में महाश्रमण तीर्थकर महावीर के प्रमुख शिष्य गणधर गौतम के साथ हुए संवाद में प्रत्येक प्रश्न के समाधान के पश्चात् कहते हैं
"साहु गोयम ! पन्ना ते"
-गौतम! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है।
महान् श्रमण केशीकुमार, न तो गणधर गौतम के उत्कृष्टतम आचार की बात करते है, न उनके शास्त्र द्वारा उपदिष्ट द्वादशांग का स्वर आलापते हैं, न दर्शन-शास्त्र का उल्लेख करते हैं। उनका एक मात्र यही स्वर मुखरित होता है-गौतम! तुम्हारी प्रज्ञा, तुम्हारा विशिष्ट ज्योतिर्मय ज्ञान श्रेष्ठ है, जिसने मेरे मन को धूमिल कर रहे सन्देह के बादलों को छिन्न-भिन्न कर दिया।
गणधर गौतम ने भी केशीश्रमण के प्रश्नों के समाधान में भी शास्ता एवं शास्त्रों की दुहाई नहीं दी, न आगमों के प्रमाणों को ही उद्धृत किया । गौतम ने धर्म के यथार्थ
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