Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 11
________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (३५) किष्किन्धा :- इसका अष्टाध्यायी (४।३।९३) के सिन्धु आदिगण में उल्लेख है। यह गोरखपुर के पास विद्यमान खुंखुदों का प्राचीन नाम है। खुंखुदों शब्द किष्किन्धा का अपभ्रंश है। (३६) पटच्चर :- इसका अष्टाध्यायी (४।२।११०) के सिन्धु आदिगण में पाठ है। यह सम्भवत: सरस्वती नदी के दक्षिण प्रदेश (वर्तमान-पाटौदी) था। यहां लुटेरे आभीरगणों की बस्ती थी। संस्कृतभाषा में पाटच्चर शब्द लुटेरा अर्थ का वाचक है। पाटौदी शब्द पटच्चर का अपभ्रंश है। (३) पर्वत पाणिनीय-अष्टाध्यायी में पर्वतीय प्रदेशों से सम्बन्धित कुछ विशेष शब्द मिलते हैं जैसे-हिमानी बर्फ का भारी ढेर (४।१।४९)। हिमश्रथ बर्फ का पिघलना (६।४।२९)। उपत्यका पर्वत के नीचे की भूमि, नदी की द्रोणी,दून, घाटी (५ ।२।३४) । अधित्यका पर्वत के ऊपर की ऊंची भूमि, पठार (५।२।३४)। इनके अतिरिक्त अष्टाध्यायी में चर्चित प्रमुख पर्वतों का परिचय निम्नलिखित है : (१) हिमालय :- इस पर्वत से सम्बन्धित दो महत्त्वपूर्ण नाम अन्तर्गिरि और उपगिरि थे। आचार्य सेनक के मत में इनका नाम अन्तर्गिर और उपगिर भी चालू था (५।४।११२)। हिमालय की पश्चिम से पूर्व की ओर फैली हुई तीन पर्वत-श्रृंखलायें हैं। हरद्वार से देहरादून की चढ़ाई और छोटे टीले इन्हीं के अंग हैं। देहरादून से केवल सात मील पर स्थित राजपुर से एकदम चढाई आरम्भ हो जाती है। हिमालय की इस बीच की श्रृंखला में मंसूरी, नैनीताल, शिमला, धर्मशाला और श्रीनगर आदि की चोटियां हैं। इनका प्राचीन नाम बहिगिरि था। इससे ऊपर उठकर हिमालय की तीसरी श्रृंखला है जिसमें १८-२० हजार से लेकर ३० हजार फुट तक की गगनचुम्बी चोटियां हैं। कांचनजंघा, गौरीशंकर, धवलगिरि, नंदादेवी और नंगा पर्वत आदि के उत्तुंग गिरिशृंग इस श्रृंखला में हैं। इसी का प्राचीन नाम अन्तर्गिरि था। (२) त्रिककुत :- यह भी हिमालय की किसी चोटी का ही नाम था। डा० कीथ ने इसकी पहचान त्रिकोट' से की है (वैदिक इन्डैक्स पृ० ३२९) । जो पंजाब और काश्मीर के बीच की चोटी थी। सुलेमान के समानान्तर शीनगर की पर्वत-श्रृंखला है जो कि झोबर (वैदिक नाम-यहवती) नदी के पूर्व में है और दोनों के पीछे टोका और काकड़ की श्रृंखलायें हैं। पर्वतों की यही तिहरी दीवार ठीक ही त्रिककुत् कहाती थी (जयचन्द्र विद्यालंकार भारतभूमि पृ० १२९)। यहीं से त्रैककुद अंजन प्राप्त होता था। इसका नाम अंजन-गिरि भी था (६ ।३।११७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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