Book Title: Pandav Purana athwa Jain Mahabharat Author(s): Ghanshyamdas Nyayatirth Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti View full book textPage 6
________________ प्रकाशककी दो बातें। • हमें इस बातका आज गौरव प्राप्त है कि हम वीर प्रभुकी परम दयासे अपने कार्यक्षेत्रमें वरावर आगे बढ़ते जा रहे है । और यह आत्म-विश्वास हो गया है कि दिनों दिन हम अधिक आधक क्षमताशाली हो सकेंगे । जिस समय हमने अपने कार्यालयका काम आरंम किया था उस समय हमें एक छोटीसी पुस्तकके प्रकाशित करनेमें भी कठिनाईका सामना करना पड़ता था; परंतु आज हमने इतनी क्षमता प्राप्त कर ली है कि सौ सौ फार्मोके महान् महान् ग्रथोंके प्रकाशित करनेकी भी हम आयोजना कर सके है । हमें अपनी इस सफलताका अभिमान है; और इसके लिए हम प्रभुकी अनन्त दयाके ऋणी है । साथ ही हम अपने उन परमस्नेही वन्धुओंके भी आभारी है जिन्होंने हमें मौके मौके पर अपने हार्दिक स्नेहसे उत्साहित कर सब प्रकारसे आगे बढ़नेका अवसर दिया है. । अपनी इस आत्म-कथाके बाद हमें जो खास बात कहना है वह यह है। इस समय हमारे हाथमें दो महान् कार्य थे। उनमें आन पहला कार्य पाडव-पुराणका छपाना समाप्त होता है; और अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार उसे हम उदार ग्राहकोंकी सेवामें भेज रहे है । हमने जो सौ सौ रुपये कर्ज देनेवाली योजना प्रकाशित की है हमें विश्वास है कि उसके अनुसार यदि कुछ महानुभाव सज्जन इस कार्यमें हमारा हाथ नवटाते तो हमें अवश्य कठिनाईका सामना करना पड़ता । इसके लिए हम उन सज्जनोंके चिर कृतज्ञ रहेंगे। दूसरा कार्य जो पद्म पुराणके छपानेका है वह भी जारी कर दिया गया है। पहले हमारी इच्छा थी कि हम पद्म-पुराणका केवल हिन्दी अनुवाद ही प्रकाशित करें । पर बाद हमें अपनी यह इच्छा पूज्यवर श्रीयुक्त पं० “धन्नालालनी काशलीवाल तथा अन्य कई मित्रोंके सत्परामर्श देने पर बदल देना पड़ी । अब हमने निश्चय किया है कि पद्म-पुराणको हम मूल संस्कृत सहित ही प्रकाशित करेंगे । यह ठीक है कि इस योजनाके अनुसार हमारी कठिनाइयाँ कुछ बढ़ जायँगी; परंतु वीर प्रमुकी अनन्त दयासे हम उन्हें पार कर जावेंगे। . इसके लिए दो बातें हम निवेदन करना चाहते हैं । एक तो यह कि निन सज्जनोंने हमें डेढ़ वर्षकी अवधिके लिए सौ रुपया कर्ज दिया है वे उस अवधिको बढ़ाPage Navigation
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