Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 9
________________ रूप में प्रख्यात हुआ। इस वर्ग ने बहुजन-सम्मत न्याय-नीतियुक्त सामाजिक व्यवस्था एवं शिष्ट आचरण को धर्म तथा निन्द्य आचरण को अधर्म कहा एवं सामाजिक सुव्यवस्था ही कर्मफल के रूप में निश्चित की। वर्तमान में प्रसिद्ध ब्राह्मणमार्ग, मीमांसक और कर्मकाण्डी इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन पूर्वोक्त दृष्टिकोण से आंशिक रूप से सहमत होते हुए भी कुछ अन्य विशेष प्रतिभाशाली चिन्तक ऐसे भी रहे हैं जिनकी मान्यता है कि श्रेष्ठ लोक (स्वर्ग) प्राप्त कर लेने में ही जीव के पुरुषार्थ की चरम परिणति नहीं है । चरम परिणति तो तब कहलायेगी जब जीव अपने को सर्वतः शुद्ध कर इस जन्म-मरण रूप संसार से सदा-सर्वदा के लिये मुक्त होकर सत्-चित्-आनन्दघनरूप स्थिति को प्राप्त कर ले । ऐसी स्थिति, मुक्ति व सिद्धि प्राप्त कर लेना ही जीवमात्र का पुरुषार्थ है। इस प्रकार की मान्यता को स्वीकार करने वाले चिन्तन की निवर्तकवादी यह संज्ञा है। इस निवर्तकवादी चिन्तन ने पुरुषार्थ के रूप में मोक्ष को परमोच्च स्थान दिया और एतदर्थ उसने अपनी समस्त क्रियाओं को नियोजित किया। किन्तु इसके चिन्तक वर्ग में अनेक पक्ष प्रचलित थे । जिनका तीन प्रकारों में वर्गीकरण किया जा सकता है—(१) परमाणुवादी, (२) प्रधानवादी, (३) प्रधान-छायापन्न परमाणुवादी। इन तीनों में से परमाणुवादी पक्ष यद्यपि मोक्ष का समर्थक है, किन्तु प्रवर्तक धर्म का उतना विरोधी नहीं, जितने उत्तर के दो पक्ष हैं। यह पक्ष न्याय-वैशेषिक दर्शन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दूसरा प्रधानवादी पक्ष आत्यन्तिक कर्मनिवृत्ति का समर्थक है। यह पक्ष सांख्य-योग के नाम से प्रख्यात हुआ । यह प्रवर्तक धर्म-श्रौत-स्मार्त को हेय बताता है। आगे चलकर इसी के तत्त्वज्ञान की भूमिका पर वेदान्तदर्शन तथा संन्यासमार्ग की स्थापना हुई। तीसरा पक्ष प्रधानछायापन्न परमाणुवादी अर्थात् परिणामी परमाणुवादी दूसरे पक्ष की तरह ही प्रवर्तक धर्म का विरोधी है । इस पक्ष का नाम जैन अथवा निर्ग्रन्थ दर्शन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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