Book Title: Panchsangraha Part 01
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 8
________________ प्राक्कथन आस्तिक माने जाने वाले सभी मानवों, चिन्तकों और दर्शनों ने इहलोकपरलोक और उसके कारण रूप में कर्म एवं कर्मफल का विचार किया है । प्रत्येक व्यक्ति यह देखना और समझना चाहता है कि वह जो कुछ भी करता है, उसका क्या फल है ? इसी अनुभव के आधार पर वह यह निश्चित करता है कि किस फल के लिये कौन-सा कार्य करणीय है । यही कारण है कि प्रागतिहासिक काल से लेकर अर्वाचीन समय तक का समस्त सामाजिक और धार्मिक चिन्तन किसी-न-किसी रूप में कर्म और कर्मफल को अपना विचारविषय बनाता आ रहा है । कर्म और कर्मफल के चिन्तन के सम्बन्ध में हम दो चिन्तक यह मानते हैं कि मृत्यु के अनन्तर जन्मान्तर हैं, अलावा अन्य श्रेष्ठ, कनिष्ठ लोक हैं, पुनर्जन्म है और इस पुनर्जन्म एवं परलोक के कारण के रूप में कर्मतत्त्व को स्वीकार करते हैं इसके लिये वे युक्ति एवं प्रमाण देते हैं कि यदि कर्म न हो तो जन्म-जन्मान्तर एवं इहलोक - परलोक का सम्बन्ध घट नहीं सकता है । अतएव जब हम पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं, तब उसके कारण रूप में कर्मतत्त्व को मानना आवश्यक है । वे मानते हैं कि पंचभूतात्मक शरीर से भिन्न किन्तु उसमें विद्यमान एक अन्य तत्त्व जीव / आत्मा है, जो अनादि-अनन्त है । अनादिकालीन संसारयात्रा के बीच किसी विशेष भौतिक शरीर को वह धारण करता और त्यागता रहता है । जन्म-जन्मान्तर की चक्र-प्रवृत्ति का उच्छेद शक्य नहीं है, किन्तु अच्छा लोक और अधिक सुख पाना है तो उसकी प्राप्ति का साधन धर्म करणीय, आचरणीय है । इस मत के अनुसार अधर्म - पाप हेय और धर्म-पुण्य उपादेय है । इस चिन्तकवर्ग ने धर्म, अर्थ और काम, इन तीन को पुरुषार्थ रूप में स्वीकार किया । जिससे यह वर्ग त्रिपुरुषार्थवादी अथवा प्रवर्तकधर्मवादी के Jain Education International दृष्टि देखते हैं । कुछ दृश्यमान इहलोक के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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