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श्री पद्मावती पुरवाल जैन डायरेक्टरी सीमित किया, किन्तु त्यौहार आदि विशेष अवसरों पर यह स्वांग भरते और सर्वसाधारण का मनोरंजन किया करते थे । उनकी इस कला की दूर-दूर तक ख्याति हुई और राजसमा में उनका समादर भी अधिक बढ़ने लगा। उनके सम्मान को बढते देखकर राजमंत्री को ईया होने लगी और वह इनकी कीर्ति कम करने के लिए तरह-तरह के पड़यंत्र भी रचने लंगा। मंत्री ने राजकुमार को उकसाया कि तुम श्री ब्रह्मगुलालजी से सिंह का स्वांग भरकर लाने को कहो।
राजकुमारने राजा के सामने उनसे सिंह का स्वांग भरकर लाने के लिए कहा। श्री ब्रह्मगुलाल ने स्वीकार तो किया किन्तु राजा से त्रुटि-मार्जनार्थ वचन ले लिया कि यदि कोई चूक हो जाय तो अपराध क्षमा किया जाय । राजा ने अभयदान दे दिया। मंत्री की चाल यह थी कि सिंह रूपधारी ब्रह्मगुलाल से हिंसा कराकर इनके बढ़ते हुए प्रभाव को कम किया जाय । यदि जीव बध करते हैं तो जैनी श्रावक पद से च्युत होते है और नहीं करने से सभा में सिंह के स्वांग की हंसी होती है। ब्रह्मगुलाल जी सिंह का स्वांग बना कर ममा में पहुंचे। सिंह की दहाड़, स्वभाव, आचरण और आकृति आदि से रूपक अच्छा बन पड़ा था। -
जब सिंह राजसभा में पहुँचा तो उसकी परीक्षा के लिए एक मृग-शावक उसके सामने खड़ा कर दिया गया । क्योंकि मन्त्री का यह पूर्व नियोजित षड़यंत्र तो था ही। सभा में खड़ा सिंह दहाड़ता है और पूंछ हिलाता है किन्तु हिरन के बच्चे पर वह झपदता नहीं है। यदि सिंह मृगशावक का वध करता है तो हिंसा होती है और नहीं करता है तो सिंह के स्वभाव में बाधा आती है। सिंह रूपी ब्रह्मगुलाल के सामने विषम परिस्थिति थी। भइ गति सांप छ दरि केरी । कदाचित् पहले से इस पडयंत्र का पता होता तो बहुत ही सुन्दर और सामयिक उत्तर मंत्री और राजकुमार को यह दिया जा सकता था कि-सिंह क्षुधित होने पर ही हिंसा करता है; निरर्थक जीव वध नहीं करता है। क्योंकि वह मृगराज कहलाता है। दूसरी बात यह भी तो है कि-वनराजा और नरराजा का यह समागम है, यहाँ सभ्य मानवों की सभा भी है । अथच यहाँ इस प्रकार के अशोभन कार्य नहीं होने चाहिये । जिस प्रकार नरराजा उचितानुचित का विचार करके कदम उठाते हैं; अपनी प्रजा को व्यर्थ ही उत्पीडित नहीं करते, इसी प्रकार वनराजा भी स्थान और काल के अनुरूप ही कार्य करते हैं। नोचेत् सिंह को इतनी देर कब लगती।
यह एक ऐसी दलील थी कि राजा भी प्रसन्न हो जाना और मंत्री तथा राजकुमार मी निरुत्तर हो जाते । यह बात अवश्य थी कि सिंह नहीं बोल सकता था किन्तु सिंह के साथ जा लोग आये थे, वह ऐसा उत्तर सिंह की ओर से दे सकते थे।
अभी ब्रह्मगुलाल कुछ स्थिर भी न कर पाये थे कि मंत्री की प्रेरणा से राजकुमार ने सिंह से कहा
सिंह नही तू स्यार है, मारत नाहिं शिकार।
धृथा जन्म जननी दियो, जीवन को धिक्कार ॥ : इतना सुनते ही सिंह के बदन में आग जैसी लग गई। ब्रह्मगुलाल को आत्मा वडा हो उठी। हिरण शिशु पर से दृष्टि हटी और क्रोधावेश में उछल कर राजकुमार के शीश पर