Book Title: Padmavati Purval Jain Directory
Author(s): Jugmandirdas Jain
Publisher: Ashokkumar Jain

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Page 266
________________ श्री पद्मावती पुरवाल जैन डायरेक्टरी न्यायदिवाकर स्व० श्री पन्नालाल जी जैन, जारखी आपका जन्म ग्राम जारखी तहसील एत्मादपुर जिला आगरा में हुआ था । आपके पिता श्री का नाम झरंगदलाल जैन था । मध्यमवर्ग का पवित्र परिवार था । आपके पिता अपने व्यवसाय के साथ साथ पंडिताई भी करते थे । जन साधारण को लग्न, मुहूर्त, तिथि. वार आदि शुभाशुभ बता दिया करते थे। यह बात उस समय की है, जव कि ग्रामों में शिक्षा के साधन बहुत अल्प थे । यातायात के परिवहन बहुत सीमित और व्यवसायिक क्रम विकास का आरम्भकाल था। पंडित जी को भाषा का ज्ञान था और उसी के साथ धार्मिक श्रद्धान भी । अल्पायु में ही श्री पन्नालाल जी का व्याह हो गया था । वयस्क होने पर पिता को गृहकार्य में सहायता की आशा स्वाभाविक ही थी । किन्तु पन्नालाल जी इस ओर से उदासीन थे। एक दिन आपके पिता जी आप पर क्रोधित हो गये। इस पर आप रुष्ट होकर घर से भाग गये। उन दिनों वाराणसी में ऐसे अनेक विद्यापीठ थे, जहाँ निःशुल्क शिक्षा दी जावी थी और धर्म परायण लोग विद्यार्थियों को भोजन भी दिया करते थे । यह संस्थायें अजैन, अर्थात् शैव किंवा वैष्णव हुआ करती थीं। जैन सिद्धांत और दर्शन यहाँ नहीं पढाये जाते थे । ऐसे ही एक गुरुकुल में आप प्रवेश पा गये । कुशाग्र बुद्धि तो थे ही, मनोयोग पूर्वक आपने खूत्र अध्ययन किया। अल्प समय में ही साहित्य व्याकरण, न्याय और ज्योतिष में प्रवीण हो गये। इनकी प्रतिभा से गुरुजी बड़े प्रसन्न रहते थे । यदा कदा इनसे सम्मति भी लिया करते थे । । ૫૫૪ एक बार इनके गुरुजी का जैनियों के साथ शास्त्रार्थ होना था। इसके लिए गुरुजी ने एक प्रवचन तैयार किया था। प्रवचन पन्नालाल जी को देकर उन्होंने इनकी सम्मति मांगी। इस समय तक यह धारा प्रवाह संस्कृत बोलने लगे थे। जैनधर्म का आपको प्रगाढ़ ज्ञान था ही। उस लेख को पढकर इन्होंने गुरुजी से कहा कि इन तकों में कोई आधारभूत तथ्य नहीं है । किये गये प्रश्नों के उत्तर बहुत सरल और साधारण है, जिनके प्रत्युत्तर नहीं हैं । गुरुजी के पूछने पर इन्होंने जब तर्क बतलये, तो गुरुजी आश्चर्य चकित होकर बोले" पन्ना, तू जैनी जान पड़ता है ?” इन्होंने बड़ी नम्रता पूर्वक गुरुजी के चरण छूकर जैनी 'होना स्वीकार कर लिया । गुरुजी कुपित होकर बोले- " तूने मेरे साथ कपट किया है। यहाँ से इसी क्षण चला जा ।" अगले दिन आपने गुरुजी से विदा ली। गुरुजी को अपने प्रिय शिष्य से विलग होने का महान् दुःख था । किन्तु उस वातावरण में न गुरुजी रख सकते थे और न यह रह ही सकते थे । गुरुजी ने गद्गद हृदय से विदाई दी और आशीर्वाद दिया । विढ़ा देते हुए आदेश दिया कि --- किसी ब्राह्मण से कभी भी तर्क या शास्त्रार्थं मत करना ।” गुरुजी के इस आदेश को पं० पन्नालालजी ने आजन्म निभाया। वहाँ से विदा लेकर पं० पन्नालालजी घर लौटे। दीर्घकालीन विछोह के बाद परिवार से सम्मिलन हुआ, तो परिवार प्रसन्न हो उठा।

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