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श्री पद्मावती पुरवाल जैन डायरेक्टरी
कि जब सम्माननीय व्यक्ति का बयान कमीशन से होता है तो जैनधर्म के ग्रन्थ तो महान् पूजनीय हैं, उनको न्यायालय में कैसे लाया जा सकता है ।
एक बार अन्य किसी विद्वान् ने पंडितजी से शास्त्रार्थ करने की इच्छा व्यक्त थी । उन्होंने एक श्लोक पढ़ा, जिसका अर्थ यह था कि-साहित्य, व्याकरण, न्याय और ज्यौतिष इनमें से किस विषय पर आप शास्त्रार्थ करना चाहते है ? उनकी बात सुनकर उस विद्वान् ने कहाबस महाराज ! जैसा आपको सुनते थे, आप उससे भी अधिक विद्वान् हैं । बादको आपको "न्याय दिवाकर" की उपाधि से विभूषित किया गया। एक बार एक अन्य व्यक्ति ने उनसे प्रश्न किया कि महाराज ! सिद्ध शिला तो परिमेय, परिमाणित है, उसमें अपरिमेय अनन्तानन्त सिद्ध कैसे रह रहे है ? पंडितजी ने कहा - "लगातार बातें सुनते रहे हो और सुनते भी रहोगे तथापि तुम्हारे कान खाली के खाली ही बने रहते है । इस युक्ति से विद्वान बढ़ा प्रसन्न हुआ ।
फिरोजाबाद के जैन मेले में फिर एक बार आर्य समाजियों ने पंडितजी से शास्त्रार्थ करने की सूचना दी । विषय मूर्ति पूजा का रखा था । समाजो लोग मूर्ति पूजा के विरोधी थे । उन दिनों मथुरा से दयानन्दजी सरस्वती की तस्वीर के छपे हुए दुपट्टे बहुत विका करते थे और आर्य समाजी लोग सन्ध्या वन्दन के समय उन दुपट्टों को ओढ़ लिया करते थे । यह बात पंडितजी को मालूम थी कि
ओढ़ दुपट्टा पूजा करते विद्वद्दर आर्यसमाजी । देवी देव मूर्ति पूजा पर नित करते है एतराजी ॥
पंडिजी को ज्ञात हुआ कि फिरोजाबाद में श्री बाबूरामजी पल्लीवाल बजाज के यहाँ ऐसे दुपट्टों की एक गांठ आई हुई है। पंडितजी ने बहुत से दुपट्टे मंगाये और कुछ तो मंच पर विछवा दिये, जहाँ कि विद्वान् लोग शास्त्रार्थ के लिए बैठेंगे और कुछ बीच के रास्ते में जहाँ से होकर लोग मच पर जायंगे, वहाँ कपड़ों की तरह बिछवा दिये। दोनों ओर पंक्ति बद्ध लोगों को खड़ाकर दिया स्वागत के लिए। जैसे ही आर्यसमाजी विद्वान् लोग पधारे कि लोगों ने बड़ी विनम्र अगवानी करते हुए वही दुपट्टों वाला मार्ग बता दिया । उनका ध्यान दुपट्टों पर पड़ा तो विचारे बड़े असमञ्जस में पड़ गये । शास्त्रार्थ के प्रश्न का मूर्तिमान उत्तर पाकर तत्काल पश्चात्पद लौट गये । पंडितजी वस्तुत :-―
विद्वान थे, गुरुज्ञान थे, सम्मान, ध्यान, महान थे । कल्यान प्रान सुजान थे, शुभ धर्म के अवदान थे ॥