Book Title: Padmavati Purval Jain Directory
Author(s): Jugmandirdas Jain
Publisher: Ashokkumar Jain

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Page 265
________________ श्री पद्मावती पुरयाल चैन डायरेक्टरी ५५३ पत्नी भी आपके जीवनकाल में ही स्वर्गमा हो गई थी। बाद को दिल्ली में एक प्रिंटिंग प्रेस भी मोटा गया था। आप अपनी दुकान पर ही अनेक गृहस्थों को धर्मशास्त्र पढ़ाया करते थे । उन्होंने भा० ० ० जैन परीक्षालय का मंत्र २ वर्ष तक संभाला और भा०प० दि० जैन महाविद्यालय के मंत्री भी गं। मंचन १९७२ में आपने पद्मावती पुरयाल जाति को जनगणना भी फगई और की, पुरुष, बालक, वृद्ध, पट्टे, अपटू, विधवा मध्या विवाहित, अधियादिन आदि सपा पूरा विवरण तैयार किया । म जनगणना को पुस्तकाकार में भी प्रकाशित कराया गया । आपला और अप्रधानों के सम्पर्क में अधिक रहा करते थे। इन जातियों मे गोत्र व्यवस्था है । यह पान गौरीलाल जी को यन पटकी कि हमारी जाति में गोत्र व्यवस्था नहीं है। यह पाप धन और और व्यय नाप्य था तथापि आपने उसे पूरा किया। पहले हम जाति में भी गोत्र व्यवस्था थी और वर्धा, नागपुर, भोपाल आदि के पुग्वालों में अभी भी है। उत्तर प्रदेशीय पुवालों में यह व्यवस्था विलिन हो गई थी, जिसे गांगेलाल जी ने पुनः प्रचलित पिया नीचेन या जाति अपने गोत्र ही भूल जाती । तथापि उत्तर और दक्षिणा मेवाहिक सम्बन्ध गोत्रादि बाधा के कारण नहीं हो पाते। आप गुनि संघ में अहा करते थे। आपने देहली में एक ला विभाग भी खोला था. जिसके द्वारा मंगलिश में जन ला लिगा पर प्रकाशित कराया। उससे जैनियों के उत्तराधिकार के दनों में काफी मिलती है। आपको "जाति भूषण" "सिद्धान्त मम्मी" और धर्म शिवार आदि को पत्र भी मिली थीं। आचार्य शान्तिसागर जी महाराज में आपने सप्त प्रतिमा का व्रत लिया था। आपने रत्नकरण्ड श्रावकाचार का हिन्दी अनुवाद किया। उसके साथ पाचार्य प्रभाचन्द्र जी महाराज की संस्कृति टीका भी जोड़ी गई और सभी को मंत भाषा में आपने स्वयं निरुक्ति लिखी । आप एक अच्छे भी थे। "जैन सिद्धान्त" नामक एक पत्र भी आपके सम्पादकत्व में प्रकाशित हुआ था। आप विनोदी प्रकृति के व्यक्ति थे। बच्चों में यथे और विद्वानों मैं विद्वान थे। आपका जीवन बढ़ा परोपकारी था ।

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