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मुनि श्री ब्रह्मगुलालजी महाराज मुनि श्री ब्रह्मगुलाल के पूर्वज प्राचीन पद्मावती नगरी (वर्तमान पवाया) के अधिवासी थे। वह किसी समय वहाँ से स्थानान्तरण करके गंगा-यमुना के मध्य टापू अथवा टापो नामक स्थान में आ बसे थे। यह वैश्य परिवार बड़ा ही विवेकशील और मर्यादापालक था। श्री ब्रह्मगुलालजी को जन्म तिथि का तो कोई निश्चित उल्लेख नहीं पाया जाता किन्तु इनके पिता श्री 'हल्ल' के शताब्दी काल का संकेत अवश्य ही मिलता है, जो कि इस प्रकार से है:
सोलह सै के ऊपरे सत्रह से के माय ।
पांखिन ही में उपजे दिरग, हल्ल दो भाय ॥ अर्थात् १६ और १७ संवत् के बीच "दिरग और हल्ल" दोनों भाई पांडो नामक स्थान में उत्पन्न हुए थे। श्री छल्ल विशेष प्रभावशाली व्यक्ति हुए । अथच इन्हें सम्मानित राजाश्रय प्राप्त हुआ। कविषर 'छत्रपति' की रचनाओं से पता चलता है कि श्री हल्ल का भरापूरा परिवार था। किन्तु जिस समय वह घर से बाहर अपने खेत-बाग मे थे, उसी समय घर में आग लगी और सारा परिवार भस्मसात् हो गया। इस आकस्मिक वनपात को इन्होंने बड़े ही धैर्य और साहस के साथ सहन किया। तत्कालीन राजा, जिनके यह दरबारी थेने बड़ी चेष्टा करके इनका पुनर्विवाह कराया। . इसी दूसरी पत्नी से श्री ब्रह्मगुलाल' का जन्म हुआ। शोधाचार्यों का ऐसा अभिमत है कि इनका जन्म संवत् १६४० के लगभग हुआ होगा। कविवर छत्रपति ने इनकी प्रशस्ति में जो प्रन्थ प्रणयन किया है, उसकी परिसमाप्ति विक्रमीय संवत् १९०९ पूर्वाषाढ नक्षत्र, माघ वदी १२ शनिवार को सायंकाल हुई। श्री ब्रह्मगुलालजी के स्वर्गारोहण के प्रायः दो सौ वर्ष बाद इस ग्रन्थ की रचना हुई । इस प्रन्थ के अनुसार श्री ब्रह्मागुलाल जी का जन्म 'टापे' नामक ग्राम में हुआ था, जो कि चन्द्रवार के समीप है। यह स्थान आगरा जिला के फिरोजाबाद नामक कस्बे के निकट है और यहाँ तत्कालीन भन्य भवनों के भग्नावशेष खण्डहर के रूप में अपनी विशालता का परिचय दे रहे है। श्री ब्रह्मगुलाल की माता प्रसिद्ध और सम्पन्न वैश्य श्री शाहन्शाह की सुन्दरी कन्या थी। ___ श्री ब्रह्मगुलाल का स्वास्थ्य बड़ा ही सुन्दर और चिवाकर्षक था। इनमें महापुरुषों के से लक्षण परिलक्षित होते थे। इनका लालन-पालन बड़े ही उत्तम ढंग से हुआ और शिक्षा एक अच्छे विद्वान् द्वारा दी गई। धर्मशास्त्र, गणित, व्याकरण, कान्य, साहित्य, छन्द, अलंकार, शिल्प, शकुन और वैद्यक आदि की शिक्षा इन्होंने अल्पकाल ही में प्राप्त कर ली थी।
ब्रह्मगुलाल कुमारणे पूर्व उपायो पुन्य ।
याने बहुविद्या फुरौं कयो जगत ने धन्य ॥ इन्हें छावनी आदि गाने और स्वांग भरने का शौक लग गया था। वादकों के साथ गाने भी गाने लगे थे। माता-पिता और परिजनों के बहुत समझाने पर इन्होंने इस कार्य को
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