Book Title: Nyaya Dipika Author(s): Bansidhar Shastri Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay View full book textPage 4
________________ निवेदन। जो विद्यार्थी और स्वाध्यायप्रेमी संस्कृत नहीं जानते हैं; परन्तु जैनन्यायका साधारण स्वरूप जाननेके लिए उत्कण्ठित रहते हैं, उनके लिए न्यायदीपिकाकी यह भाषाटीका प्रकशित की जाती है। यद्यपि न्यायकी सूक्ष्म बातोंका समझना साधारण बुद्धिवालोंका काम नहीं, तो भी आशा की जाती है कि इस प्रयत्नसे भाषाकी अच्छी योग्यता रखनेवालोंको बहुत कुछ लाभ होगा। __ यह टीका जैनसिद्धान्तपाठशाला मोरेनाके विद्यार्थी और न्यायवाचस्पति पं० गोपालदासजी बरैयाके प्रधान शिष्य पं० खूबचन्द्रजीने लिखी है और इसका संशोधन टीकाकारके ज्येष्ठभ्राता पं० वंशीधरजी शास्त्री, अध्यापक जैनपाठशाला शोलापुरने किया है। हमारी समझमें उक्त दोनों पण्डितमहाशयोंने इस विषयमें अच्छा परिश्रम किया है और किसी ग्रन्थकी भाषाटीका लिखनेका जो उद्देश्य है वह बहुत अंशोंमें सफल हुआ है। न्यायदीपिकाकी पहले भी दो भाषावचनिकायें होचुकी हैं जिनमेंसे एक तो जयपुरनिवासी पं० पन्नालालजी दूनीवालोंकी बनाई हई है और दूसरी न्यायदिवाकर पं० पन्नालालजीकी रची हुई है । इनके सिवा शायद और भी एकाध वचनिका हो; परन्तु हमको उक्त वचनिकाओंकी प्राप्ति न हो सकी । इसके सिवा वर्तमान समयमें उक्त वचनिकाओंकी एकदेशीय भाषासे सर्वसाधारणको लाभ भी नहीं पहुंच सकता है । इस लिए हमने यह नई टीका लिखवाना ही उचित समझा और हमारे खयालसे जैनियोंको अब वर्तमान हिन्दीकी प्रतिष्ठा, सुगमता और राष्ट्रीयताका विचार करके अपने शास्त्रोंको जहांतक बने इसी हिन्दी भाषामें परिवर्तन कर डालना चाहिए । जिन लोगोंका ऐसा विश्वास है कि पुरानी भाषामें ही कुछ महत्त्व और पूज्यता है, उनसे विवाद करनेकी तो हममें शक्ति नहीं; परन्तु जो लोग चाहते हैं कि हमारे शास्त्रों और तत्त्वोंका सर्वसाधारणमें बहुलतासे प्रचार हो उनकी इच्छा अब वर्तमान भाषाका आश्रय लिये विना पूर्ण नहीं हो सकती। न्यायदीपिकाके भूलकर्ता श्रीधर्मभूषण यति हैं। ये दिगम्बर सम्प्रदा.Page Navigation
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