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शांति पाठ का द्वार, विराट सत्य और प्रभु का आसरा
थोड़ा सोचने जैसा है, बहुत प्रायोगिक है। परमात्मा से प्रार्थना की है, सत्ता से प्रार्थना की है कि मेरी वाणी को क्षीण कर दो, न्यून कर दो, कम कर दो और मन में थिर कर दो, और मेरे मन को मेरी वाणी में थिर कर दो। लेकिन वाणी और मन को भी कोई चोट न पहुंच जाए।
तो ऋषि कहता है, हे वाणी और मन! तुम दोनों मेरे ज्ञान के आधार हो, इसलिए मेरे ज्ञान का नाश न करो। मैं इस ज्ञान के अभ्यास में ही दिन-रात व्यतीत करता हूं।
मन और वाणी के प्रति भी वैमनस्य नहीं है, शत्रुता नहीं है, ऐसा भाव नहीं है कि वे दुश्मन हैं।
इस जगत में जिन्होंने सच में ही गहरी यात्राएं की हैं, उन्होंने उस सब को भी, जो मार्ग में बाधा बनता है, अपनी सीढ़ी बना लिया है। यह हम पर निर्भर है। रास्ते से मैं गुजर रहा हूं, एक पत्थर पड़ा है। मैं छाती पीटकर चिल्लाता हूं, रोता हूं कि यह अवरोध है, हिंड्रेस है। लेकिन जो जानता है, वह उस पत्थर पर पैर रखकर पार हो जाता है। और जब पत्थर पर पैर रखता है, तो जो उसे पत्थर के नीचे से कभी भी दिखाई नहीं पड़ा था, वह पत्थर के ऊपर चढ़कर दिखाई पड़ जाता है। तल बदलता है।
तो मन को गाली देने वाले साधु-संत बहुत ज्यादा मिलेंगे। लेकिन हे वाणी और मन! ऐसे आदर से वाणी और मन को भी संबोधन करने वाले ऋषि को खोजना थोड़ा कठिन पड़ेगा। गांव-गांव मिल जाएंगे वे लोग जो कहेंगे कि मन, यही शैतान, यही शत्रु!
लेकिन ऋषि कहता है, हे वाणी और मन!
संत फ्रांसिस जिस दिन मरा, तो लोग हैरान हुए कि उसने परमात्मा से प्रार्थना न की मरते वक्त। आंखें खोली आखिरी क्षण में। शिष्य सोचते थे, वह प्रभु की प्रार्थना करेगा। जिसने जीवनभर प्रार्थना में बिताया, उसने अंतिम क्षण में अपने शरीर से कहा, हे मेरे प्यारे शरीर, तूने मुझे पूरा साथ दिया। मैंने तेरी अनेक बार उपेक्षा भी की और अनेक बार तुझसे लड़ा भी, फिर भी तूने मेरा साथ न छोड़ा। नहीं जानता था, तब-समझता था कि तू मेरा दुश्मन है, जब जाना तो पाया कि तू मेरा साथी है। तू मुझे शराबघर भी पहुंचा सकता है, मंदिर भी। और सदा निर्णय मैं लेता हूं कि कहां जाना है, तू सदा साथ हो जाता है।
ऋषि कहता है, हे मेरी वाणी!
इस जगत में सभी कुछ परमात्मा का है। और जो ठीक उपयोग करना जानते हैं, राइट यूज, वे प्रत्येक चीज को साधन बना लेते हैं। तो मन और वाणी भी साधन बन सकते हैं।
तो ऋषि कहता है, हे वाणी और मन! तुम दोनों मेरे ज्ञान के आधार हो।
इधर एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है। मूल-सूत्र में शब्द उपयोग हुआ है वेद। हिंदी में भी अनुवाद किया है, तुम मेरे वेद-ज्ञान के आधार हो। लेकिन मैं दो में से एक ही कोई शब्द उपयोग कर सकता हूं। क्योंकि वेद का भी अर्थ ज्ञान होता है और ज्ञान का अर्थ भी वेद होता है। तो वेद-ज्ञान जैसा कोई अर्थ नहीं होता। वेद-ज्ञान पुनरुक्ति है, रिपिटीशन है। वेद-ज्ञान पुनरुक्ति है। वेद का अर्थ ज्ञान ही होता है और ज्ञान का अर्थ तो वेद है। वेद उसी से बनता है जिससे हमारा विद्वान बनता है, विद्। विद् का अर्थ होता है जानना।
लेकिन शास्त्रों को जो लिखते हैं और अनुवाद करते हैं, उन्हें उस ज्ञान का बहुत कम पता होता है। उनका अर्थ वेद से होता है-वेद-संहिता, वह किताब, वह संगृहीत स्क्रिप्चर, शास्त्र। वेद का अर्थ
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