Book Title: Nirvan Upnishad
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 258
________________ निर्वाण उपनिषद मन का समझाना है, कंसोलेशन है। यह बार-बार इनका कहना कि धन में क्या रखा है! और धन इनके पास है नहीं, इन्हें धन का पता भी शायद कुछ नहीं है। शायद धन में कुछ नहीं रखा है, ऐसा बार-बार कहकर अपने को भरोसा दिला रहे हैं कि अपन कछ चक नहीं रहे, अगर धन अपने पास नहीं है। नहीं, जब किसी के पास धन है और वह कहता है, धन में क्या रखा है, तब इस बात के आमूल अर्थ बदल जाते हैं। आमूल ही अर्थ बदल जाते हैं। परिस्थिति प्रतिकूल हो, तब जो त्याग होता है, वह त्याग सम्यक त्याग नहीं है। परिस्थिति जब बिलकुल अनुकूल हो, तब जो त्याग होता है, वह सम्यक त्याग है। संसार को जिन्होंने पीड़ित होकर छोड़ दिया है, वे संसार से बंधे ही रह जाते हैं। क्योंकि जिससे हमें पीड़ा मिल सकती थी, अभी हम उसका त्याग नहीं कर सकते हैं। ____ इसे थोड़ा समझना पड़े। जिससे हमें पीड़ा मिल सकती थी, वह मिलती ही इसीलिए थी कि हमें अब भी उससे सुख पाने की अपेक्षा थी। अन्यथा पीड़ा का कोई कारण न था। इसीलिए जो जानता है, वह यह नहीं कहता कि संसार दुख है; वह कहता है, संसार असार है। इन दोनों में बड़ा फर्क है। वह यह नहीं कहता कि दुख है; वह कहता है, दुख के योग्य भी नहीं है। क्योंकि जिससे सुख मिल ही नहीं सकता, उसे दुख कहने का क्या अर्थ है। जिससे सुख मिलने की आशा बंधी है और नहीं मिलता, उससे लगता है कि दुख मिला। जो जानता है, भीतर बोध जिसका जगता है, चैतन्यमय हो जाता है, वह देखता है, संसार असार है। इतना भी सार नहीं कि वह दुख दे सके-टोटली मीनिंगलेस। इतना भी अर्थ नहीं उसमें, दुख देने जैसा। क्योंकि जो दुख दे सकता है, वह सुख क्यों नहीं दे सकता! जिससे दुख मिल सकता है, उससे कम दुख भी मिल सकता है, ज्यादा दुख भी मिल सकता है। . जिससे दुख मिल सकता है, उससे सुख क्यों नहीं मिल सकता! क्योंकि कम दुख, और कम दुख, और कम दुख सुख हो जाता है। और कम सुख, और कम सुख, और कम सुख दुख हो जाता है। तारतम्यताएं हैं. डिग्रीज हैं। पानी को थोडा और कम ठंडा करो, गर्म हो जाता है। पानी को थोडा और कम गर्म करो. ठंडा हो जाता है। गर्मी और सर्दी कोई शत्रु नहीं मालूम होते, तारतम्यताएं, डिग्रीज़ मालूम होते हैं। सुख-दुख भी ऐसे ही हैं ___अगर कोई कहता है, संसार से बहुत दुख मिलता है इसलिए छोड़ दो, तो गलत कहता है। क्योंकि बहुत दुख जिससे मिलता है, उससे सुख मिल क्यों नहीं सकता! कोई कारण नहीं है। जिससे दुख मिल सकता है, उससे सुख मिल सकता है। क्योंकि जिससे सुख मिल सकता है, उससे दुख मिल सकता है। असल में सुख की आशा जहां है, वहीं दुख मिलता है। दुख मिलता ही इसलिए है कि उससे पहले सुख की आशा खड़ी थी। नहीं, संसार असार है-जस्ट मीनिंगलेस। दुख भी नहीं है वहां, सुख भी नहीं है वहां। वहां कुछ है ही नहीं। वहां जो भी हम देखते हैं, वह हमारा ही डाला हुआ है। वहां जो भी हम पाते हैं, वह हमारी ही देन है। वह हमने ही दिया है। संसार से जो भी हम पाते हैं, वह हमारी ही प्रतिध्वनि है। इसलिए दुख के कारण जो छोड़ दे-प्रियजन मर गया हो, कि प्रियजन न मिल पाया हो, कि प्रियजन प्रिय सिद्ध न हुआ हो, वह आदमी संसार छोड़ दे—उसका छोड़ना स्युसाइडल है; रिनंसिएशन नहीं, V248

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