Book Title: Nirvan Upnishad
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 291
________________ भ्रांति भंजन, कामादि वृत्ति दहन, अनाहत मंत्र और अक्रिया में प्रतिष्ठा तो जब कस्टमर्स में ही जीना है, तो हर्ज क्या है ? दुकान पर बैठकर सामान ही बेचा, तो क्या हर्ज है? प्रतिष्ठा बदल जानी चाहिए। दुकान पर बेचते हुए दुकानदार न रह जाएं, बस ! काम करते हुए करने वाले न रह जाएं। अक्रिया में प्रतिष्ठा हो जाए, तो संन्यास है। ऐसा स्वेच्छाचार रूप आत्म-स्वभाव रखना - यही मोक्ष है। यह वचन तो अपूर्व है। अद्वितीय है, इनकम्पेरेबल है। मनुष्य जाति के साहित्य में, किसी भी साहित्य में, ऐसा वचन खोजना असंभव है। स्वेच्छाचार स्वस्वभावो मोक्षः । स्वेच्छाचार जिनका स्वभाव है ! बड़ी कठिन बात है। स्वेच्छाचार तो बड़ा गलत शब्द है हम सब की नजरों में। जब किसी आदमी की हमें निंदा करनी होती है, तो हम कहते हैं, स्वेच्छाचारी है। स्वेच्छाचारी का मतलब यह होता है कि गया, भटक गया, न किसी की सुनता, न किसी की मानता, न कोई नियम, न कोई संयम, न कोई मर्यादा – स्वेच्छाचारी है। स्वेच्छाचार तो हमारे लिए गाली जैसा है। और ऋषि कहता है, स्वेच्छाचार स्वस्वभावो मोक्षः । ऐसे स्वेच्छाचार में जिसने अपने स्वभाव को जाना, वही मोक्ष है। लेकिन यह सूत्र आता है बहुत अंत में। इसके पहले सब विसर्जित हो चुका। वह अहंकार जा चुका, जो स्वेच्छाचार कर सकता था। वह अहंकार अब नहीं बचा, जो स्वेच्छाचार में उतरने में रस लेता, वह जा चुका । अक्रिया में प्रतिष्ठा हो गई है । क्रिया में रस होता, तो स्वेच्छाचार खतरे कर सकता था । नेपोलियन से कोई पूछ रहा था कि आपकी दृष्टि में कानून की परिभाषा क्या है ? हाउ डू यू डिफाइन दला ? नेपोलियन ने कहा, यह काम साधारण लोगों पर छोड़ो। जहां तक मेरा संबंध है, आई एम द ला । हूं। यह छोड़ो बेकार लोगों पर, कानूनविदों पर, वे इसका हिसाब लगाते रहेंगे कि परिभाषा क्या है । ऐज़ फार ऐज़ आई एम कंसर्न्स, आई एम द ला । मैं स्वेच्छाचार का यही मतलब होता है। लेकिन नेपोलियन का स्वेच्छाचार और संन्यासी के स्वेच्छाचार में नर्क और स्वर्ग का फर्क है। नेपोलियन जब स्वेच्छाचारी होता है, तो सिर्फ इसीलिए कि वह दूसरे की इच्छाओं का खंडन कर दे, तोड़ दे, मिटा दे; और जो अहंकार कहे, जो मन कहे, जो वासना कहे, जो कामना कहे, वृत्तियां कहें, वही करे। तो नेपोलियन का स्वेच्छाचार पाशविक हो जाता है, पशुओं जैसा हो जाता है। पशुओं से भी बदतर हो जाएगा। क्योंकि पशु की क्षमता आदमी से ज्यादा नीचे गिरने की नहीं है, क्योंकि पशु की क्षमता आदमी से ज्यादा ऊपर उठने की नहीं है। आदमी जितना ऊपर उठ सकता है, उतना ही नीचे जा सकता है। नीचे और ऊपर जाना समानुपाती होता है। वृक्ष जितने ऊपर जाता है, उसकी जड़ें उतनी ही नीचे जाती हैं। जो वृक्ष थोड़ा ही ऊपर जाता है, उसकी जड़ें उतनी ही नीचे जाती हैं। वृक्ष की ऊंचाई देखकर आप कह सकते हैं कि जड़ों को कितने नीचे जाना पड़ा होगा। वे अनुपात में होती हैं। ऊपर और नीचे जाने की क्षमता समान होती है। चूंकि पशु ऊपर नहीं जा सकते, पशु नीचे नहीं जा सकते। आदमी ही जा सकता है ऊपर और नीचे । तो जब आदमी में वासना होती है, कामना होती है, वृत्तियां होती हैं, अहंकार होता है, मोह होता 281

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