Book Title: Nirvan Upnishad
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 278
________________ निर्वाण उपनिषद वह स्त्री, जो एकदम आनंद की मूर्ति हो गई थी, कुरूप हो गई। प्रेम एकदम सूखा हुआ मालूम पड़ा। सब नष्ट हो गया। सपने खंडहर होकर गिर गए। मुल्ला ने एक सत्य कह दिया। सभी प्रेमी यही कहते हैं, लेकिन जब कहते हैं, तब इतने भाव से कहते हैं कि वे भी भूल जाते हैं कि यह बात हम पहले भी कह चुके हैं। मुल्ला एक स्त्री के प्रेम में है, लेकिन शादी को टालता चला जाता है। आखिर उस स्त्री ने कहा कि अंतिम निर्णय हो जाना चाहिए। आज आखिरी बात। शादी करनी है या नहीं? अब टालना नहीं हो सकता। मुल्ला ने कहा, भ्रम जब बहुत ताजे थे, तभी शादी हो जाती, तो हो जाती। अब तो भ्रम बहुत बासे पड़ गए हैं। अब तो हम उस हालत में हैं कि अगर शादी हो गई होती, तो तलाक का इंतजाम हो रहा होता। उस स्त्री ने कहा, दरवाजे से बाहर निकल जाओ। मुल्ला ने कहा, जाता हूं, लेकिन मेरे प्रेम-पत्र लौटा दो। स्त्री ने कहा कि क्या मतलब, क्या करोगे प्रेम-पत्रों का? मुल्ला ने कहा, फिर भी जरूरत पड़ेगी ही। तो दुबारा लिखने की झंझट कौन करे। और फिर मैंने ये एक प्रोफेशनल राइटर से लिखवाए थे, पैसा खर्च किया था! ___वही भ्रम बार-बार खड़ा करना पड़ता है। जीना मुश्किल है। एक कदम चलना मुश्किल है। इसलिए गृहस्थ उसे कहें हम, जो बिना भ्रम के नहीं जी सकता। अगर इसकी ठीक मनोवैज्ञानिक परिभाषा करनी हो, तो गृहस्थ वह है, द वन हू कैन नाट लिव विदाउट इल्यूजन्स। उसे भ्रमों के घर बनाने ही पड़ेंगे, उसे कदम-कदम पर भ्रम की सीढ़ियां निर्मित करनी पड़ेगी। संन्यासी वह है, जो बिना भ्रम के रहने के लिए तैयार हो गया। जो कहता है. सत्य के साथ ही रहेंगे. चाहे सत्य जार-जार कर दे, तोड़ दे, खंड-खंड कर दे, मिटा दे, नष्ट कर दे, लेकिन अब हम सत्य जैसा । है, उसके साथ ही रहेंगे। अब हम भ्रम खड़े न करेंगे। ___इसलिए संन्यासी भ्रमों को तोड़ने में लगा रहता है, भ्रांतियों को तोड़ने में लगा रहता है। जहां-जहां उसे लगता है, भ्रांतियां खड़ी की जा रही हैं, वहां-वहां वह तोड़ता है। मन के प्रति सजग होता है कि मन कहां-कहां भ्रांतियां खड़ी करवाता है। देखता है अपने चारों तरफ कि मैं कोई सपने तो नहीं रच रहा हूं जागने में या सोने में। मैं बिना सपने के जीऊंगा। बिना सपने के जीने की बात बड़ा दुस्साहस है। साधारण साहस नहीं है यह, दुस्साहस है, क्योंकि इंचभर सरकना मुश्किल है बिना सपने के। बिना सपने के इंचभर भी सरकना मुश्किल है। एक कदम न उठेगा। अगर सपने आपसे छीन लिए जाएं, आप यहीं गिर जाएंगे। मिट्टी के ढेर हो जाएंगे। __ संन्यासी फिर भी चलता है, उठता है, बैठता है, सारे भ्रम को तोड़कर। और जैसे ही भ्रमों को तोड़ देता है पूरे, वैसे ही उसकी सत्य में गति हो जाती है। टु नो द अनटु ऐज़ अनटू इज़ द ओनली वे टुवर्ड्स य। असत्य को असत्य की भांति जान लेना सत्य की ओर एकमात्र मार्ग है। भ्रांति को भ्रांति की भांति पहचान लेना सत्य की अनुभूति का द्वार है। इसलिए प्राथमिक रूप से संन्यासी को भ्रांतियां तोड़नी पड़ती हैं। इसलिए संन्यासी के पास अगर कोई रहे, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। संन्यासी तो मुश्किल में होता है अपने ढंग की, लेकिन उसकी मुश्किल तो ठीक है, उसके पास कोई रहे, तो बहुत मुश्किल 7268

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