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शिरमोर दार्शनिक आचार्यप्रवर श्री सिद्धसेन दिवाकरजी की १९वीं द्वात्रिंशिका का एक अधिक प्राप्त हुआ पद्य
मुनि जंबूविजय भगवान् श्री दिवाकरजी की द्वात्रिंशिकाओं के सभी अभ्यासकर्ताओं को अच्छी तरह विदित है कि यह कितनी अतिगूढ और अतिगहन है । इसका अर्थ सुलझानेमें अभ्यासिओं को अनेक स्थान पर काफ़ी मुसीबत का अनुभव होता है । अगर शुद्ध कारिकाओं में भी अर्थ परिज्ञान के लिए इस तरह के कष्ट का अनुभव करना पड़े तो जहाँ पाठों की अशुद्धि हो वहाँ इस तरह की अपार मुश्किलों का अनुभव करना पड़े इसमें क्या आश्चर्य ? न्यायावतार को छोड़कर अन्य द्वात्रिंशिकाओं पर टीका ग्रंथ भी नहीं रचे गये जिसके आधार पर पाठ-शुद्धि तथा अर्थ-परिज्ञान आसानी से किया जा सके । शायद किन्हीं पूर्वाचार्यों ने ये टीकाग्रंथों की रचना की होगी तो भी इस समय तो ये नितांत अज्ञात और अप्राप्य ही है। अपितु ऐसे गूढ़ ग्रंथों में प्रमाणभूत आधार से पाठशुद्धि की जाये तभी सफलता की अधिक संभावना हो सकती है वर्ना, सिर्फ अमुक प्रकार की विचारणा के बल पर ही यदि पाठशुद्धि की जाये तो ऐसा करने पर अशुद्ध पाठों में बढ़ावा ही हो जाता है। इसलिए ऐसे ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियाँ जहाँ कहीं से भी प्राप्य हो खोज खोज कर प्राप्त करके उसमें से शुद्ध पाठों को अलग किये जाय यही पाठ-शुद्धि का उत्तम मार्ग है।
गत वर्ष हम पूना में थे; तब श्रुतज्ञान के अखंड उपासक पू. मुनिराजश्री पुण्यविजयजी महाराज सा. का इस बारे में एक पत्र आया कि "वहाँ पूना में भांडारकर प्राच्य विद्यामंदिर (Bhandarkar Oriental Institute) में सिद्धसेन दिवाकरजी प्रणीत द्वात्रिंशिकाओं की ताड़पत्र पर लिखी गई एक प्राचीन प्रति है। जैन धर्मप्रचारक सभा (भावनगर) की ओर से प्रकाशित मुद्रित प्रति की उसके साथ तुलना करके उसमें से तुम पाठांतर ले लेना ।" यह पत्र पढ़कर इस प्रति को प्राप्त करने के लिए मैंने प्रयास किया लेकिन, संस्था के संचालक ताड़पत्र पर लिखे गये ग्रंथों को संस्था के मकान के बाहर ले जाने के लिए किसी को भी नहीं देते हैं [1] इसलिए वहाँ जाकर ही पाठांतरों को प्राप्त करने की मैंने शुरूआत की ।
पाठांतर लेने पर मालूम हुआ कि शुद्ध और अशुद्ध ऐसे दोनों प्रकार के पाठांतर उसमें मिलते थे। उसमें ऐसे सुन्दर अनेक शुद्ध पाठ भी मुझे मिलने लगे लक्ष्य प्राप्ति में सफल होने के कारण मैं बेहद आनंद का अनुभव कर रहा था । लेकिन जब १९वीं बत्तीशी का पाठांतर ले रहा था उस समय तो मेरी खुशी का पार न रहा । मुद्रित में नहीं छपा हुआ एक पूरा का पूरा पद्य ही मुझे उसमें से अधिक प्राप्त हुआ । मुद्रित १९वीं द्वात्रिंशिका में कुल मिलाकर ३१ पद्य हैं उनमें ११वाँ पद्य निम्नानुसार छपा हुआ है :
परस्परस्पृष्टगतिर्भावनापचयाध्वनिः । बद्धस्पृष्टगमद्व्यादिस्नेहरौक्ष्यातिशायनात् ॥११॥ भांडारकर संस्था की ताड़पत्रि में इस स्थान पर दो कारिकाएँ हैं, और उसका क्रम निम्नानुसार है :
परस्परस्पृष्टगतिर्भावनापचयाध्वनिः । पृष्ट ग्राह्यश्रुते सम्यगर्थ भावोपयोगतः ॥११॥
संघात-भेदो-भयतः परिणामाच्चसंभवः । बद्धपष्ट गम(समद्वयादिस्नेहरौक्ष्यातिशायनात् ॥१२॥ भांडारकर संस्था की प्रति के अलावा दूसरी हस्तलिखित प्रति में यह कारिका देखने को नहीं मिलती है। इस कारण से यह एक महत्त्व की प्राप्ति है । इस कारिका को उसमें जोड़ने पर द्वात्रिंशिकाओं की ३२
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