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वायडगच्छ का इतिहास
शिवप्रसाद गुजरात के प्राचीन और मध्ययुगीन नगरों तथा ग्रामों से अस्तित्व में आये चैत्यवासी श्वेताम्बर जैन गच्छों में थारापद्र' और मोढगच्छ' के पश्चात् वायडगच्छ का नाम उल्लेखनीय है । वायड (वायट) नामक स्थान से अस्तित्व में आने के कारण इस गच्छ का उक्त नाम और उसका पर्याय वायटीय प्रसिद्ध हुआ । ब्राह्मणीय और जैन साक्ष्यों के अनुसार पूर्वकाल में वायड महास्थान के रूप में विख्यात रहा ।
वायडगच्छ के सम्बद्ध अभिलेखीय साक्ष्यों के रूप में कुछ प्रतिमालेखों का उल्लेख किया जा सकता है जो पीतल की जिनप्रतिमाओं पर उत्कीर्ण हैं । इनमें से प्रथम लेख भरूच से प्राप्त वि. सं. १०८६/ ई. स. १०३० की एक जिनप्रतिमा पर उत्कीर्ण है । द्वितीय लेख साणंद से प्राप्त वि. सं. ११३१/ ई. स. १०७५ की एक जिनप्रतिमा पर खुदा हुआ है । तृतीय और चतुर्थ लेख शत्रुञ्जय से प्राप्त वि. सं. ११२९ और वि. सं. ११३२ की जिनप्रतिमाओं से ज्ञात होते हैं । इस प्रकार उक्त साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि ईस्वी सन् की ११वीं शती में यह गच्छ सुविकसित स्थिति में विद्यमान था ।
मध्ययुगीन प्रबन्धग्रन्थों में वायडगच्छ के मुनिजनों के सम्बन्ध में वर्णित प्रशंसात्मक विवरणों से प्रतीत होता है कि इस गच्छ के मुनि चैत्यवासी थे ।
वायडगच्छ के प्रधानकेन्द्र वायडनगर में जीवन्त-स्वामी का एक मंदिर था । कल्पप्रदीप (ई. स. १३३३) में उल्लिखित चौरासी तीर्थस्थानों की सूचि में इसका नाम मिलता है । पुरातनप्रबन्धसंग्रह (ई. स. १५वीं शती) में मंत्री उदयन के पुत्र वाग्भट्ट के संदर्भ में वायटस्थित जीवन्तस्वामी, मुनिसुव्रत और महावीर के मन्दिरों का उल्लेख मिलता है । अंचलगच्छीय महेन्द्रसूरिकृत अष्टोत्तरीतीर्थमाला (ई. स. १२३७) में भी इसी प्रकार का विवरण प्राप्त होता है । इससे पूर्व संगमसूरि के चैत्यपरिपाटीस्तवन (ई. स. १२वीं शताब्दी) में वायड का महातीर्थ के रूपमें वर्णन मिलता है । साधारणांक सिद्धसेनसूरि द्वारा रचित सकलतीर्थस्तोत्र (प्रायः ई. स. १०६०-७५) में भी इस स्थान का एक जैन तीर्थ के रूपमें उल्लेख है।
प्रभावकचरित (वि. सं. ११३४ / ई. स. १२७८) के अनुसार विक्रमादित्य के मंत्री लिम्बा द्वारा यहाँ स्थित महावीर जिनालय का जीर्णोद्धार कराया गया३ । वहाँ यह भी कहा गया कि उसने राशिल्लसूरि के शिष्य और जिनदत्तसूरि के प्रशिष्य जीवदेवसूरि को उक्त जिनालय का अधिष्ठाता नियुक्त किया । प्रबन्धकोश (वि. सं. १४०५ / ई. स. १३४९) में भी यही बात कही गयी है किन्तु वहाँ मंत्री का नाम निम्बा बतलाया गया है४ जो अक्षरान्तर मात्र है ।
प्रबन्धग्रन्थों के उक्त उल्लेखों में वर्णित कथानक में विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त 'द्वितीय' विक्रमादित्यई. स. ३७५-४१२) के काल की कल्पना की गयी है जिसको हम स्वीकार नहीं कर सकते तो भी इतना संभव हो सकता है कि नवीं शताब्दी के किसी प्रतिहार नरेश के प्राकृत नामधारी मंत्री निंबा या लिंबा ने उक्त जिनालय का निर्माण कराया होगा और यही तो जीवदेवसूरि का संभावित समय भी है५ ।
प्रभावकचरित'६ में वायडगच्छ के प्रारम्भिक आचार्यों के सम्बन्ध में प्राप्त विवरण-जिसका एक अंश कथानक ही है, से ज्ञात होता है कि वायड नामक ग्राम में धर्मदेव नामके एक श्रेष्ठी थे। उनके बड़े पुत्र का नाम महीधर और छोटे पुत्र का नाम महीपाल था । महीधर ने श्वेताम्बर जैनाचार्य जिनदत्तसूरि से दीक्षा ग्रहण कर ली और राशिल्लसूरि के नाम से विख्यात हुए । छोटे पुत्र महीपाल ने राजगृह (संभवतः वर्तमान
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