Book Title: Nirgrantha-2
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

Previous | Next

Page 311
________________ शिवप्रसाद Nirgrantha जैन मुनि थे । इनके गुरु का नाम राशिल्लसूरि और प्रगुरु का नाम जिनदत्तसूरि था । जैसा कि इसी लेख के अन्तर्गत पीछे कहा जा चुका है विभिन्न जैन ग्रन्थकारों-धनपाल, लक्ष्मणगणि, उपाध्याय चन्द्रप्रभ, प्रभाचन्द्र, राजशेखर आदि ने अपनी कृतियों में इनका सादर उल्लेख किया है। इनके द्वारा रचित केवल एक ही कृति आज मिलती है जिसका नाम है-जिनस्नात्रविधि । चन्द्रगच्छीय गोग्गयचार्य के शिष्य समुद्रसूरि ने वि. सं. १००६ / ई. सन् ९५० में इस पर टिप्पण की रचना की३३ । प्रभावकचरित और प्रबन्धकोश में इन्हें विक्रमादित्य समकालीन बतलाया गया है परन्तु वर्तमान युग के विद्वानों ने विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर इनका काल विक्रम संवत् की ८वीं-९वीं शताब्दी के आस-पास बतलाया है, जो उचित प्रतीत होता है। जिनदत्तसूरि : महामात्य वस्तुपाल-तेजपाल के समकालीन वायडगच्छीय आचार्य जिनदत्तसूरि द्वारा प्रणीत विवेकविलास५ एवं शकुनशास्त्र ये दो कृतियाँ मिलती हैं । विवेकविलास की प्रशस्ति में इन्होंने अपने गुरु-परम्परा के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी है जिसके अनुसार वायडगच्छ में राशिल्लसूरि नामक एक प्रसिद्ध आचार्य हुए । उनके शिष्य एवं पट्टधर जीवदेवसूरि परकायप्रवेशविद्या में निपुण थे । इसी परम्परा में आगे चलकर जिनदत्तसूरि हुए जिन्होंने उक्त ग्रन्थ की रचना की। प्राकृत भाषा में रचित इस ग्रन्थ में १२ अध्याय हैं जो उल्लास कहे गये हैं। इनमें कुल १३२३ श्लोक हैं । इस कृति में मानव-जीवन के उत्कर्ष के लिये कतिपय आवश्यक सभी तथ्यों का सारगर्भित विवरण है। प्रथम पाँच उल्लासों में दिनचर्या, ड्ठे में ऋतुचर्या, सातवें में वर्ष चर्या, और आठवें में जन्मचर्या अर्थात् समग्र भव के जीवनव्यवहार का संक्षिप्त विवेचन है । नवें और दसवें उल्लास में अनुक्रम से पाप और पुण्य के कारणों का विवरण है । ग्यारह वें उल्लास में आध्यात्मिक विचार और ध्यान के स्वरूप का वर्णन है । अंतिम १२वें उल्लास में मृत्यु के समय के कर्तव्य तथा परलोक के साधनों की चर्चा है । कृति के अन्त में १० श्लोकों की प्रशस्ति दी गयी है । यह कृति वि. सं. १२७७ / ई. सन् १२२१ में रची गयी मानी जाती है । ब्राह्मणीय परम्परा के प्रसिद्ध ग्रन्थकार माधवरे (ई. स. की १४वीं शताब्दी) द्वारा प्रणीत सर्वदर्शनसंग्रह में भी आचार्य जिनदत्तसूरि की उक्त कृति का उल्लेख प्राप्त होता है । शकुनशास्त्र नौ प्रस्तावों में विभक्त पद्यात्मककृति है। इसमें संतान के जन्म, लग्न और शयन सम्बन्धी शकुन, प्रभात में उठने के समय के शकुन, दातून करने एवं स्नान करने के समय के शकुन, परदेश जाने एवं नगरमें प्रवेश करने के समय के शकुन आदि अनेक शकुन और उनके शुभाशुभ फल आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है । अमरचन्द्रसूरि : वायडगच्छीय जिनदत्तसूरि के शिष्य और वाघेलानरेश वीसलदेव (वि. सं. १२९४-१३२८) और उनके मंत्री वस्तुपाल-तेजपाल द्वारा सम्मानित अमरचन्द्रसूरि उस युग के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों में से थे। जैन श्रमण की दीक्षा लेने से पूर्व ये वायटीय ब्राह्मण थे । इन्होंने स्वरचित बालभारत, पद्मानन्दमहाकाव्य काव्यकल्पलता, स्यादिशब्दसमुच्चय आदि में अपने सम्बन्ध में कुछ जानकारी दी है । इसके अतिरिक्त परिवर्ती ग्रन्थकारों ने अपनी कृतियों यथा अरिसिंह द्वारा रचित सुकृतसंकीर्तन, मेरुतुंगसूरि द्वारा रचित प्रबन्धचिन्तामणि, राजशेखरसूरि द्वारा प्रणीत चतुर्विंशतिप्रबन्ध, रत्नमंदिरगणि द्वारा रचित उपदेशतरंगिणी, नयचन्द्रसूरि द्वारा रचित हम्मीरमहाकाव्य (रचनाकाल वि. सं. १४४४ के आसपास) आदि से भी इनके जीवन पर कुछ प्रकाश पडता है | वायड निवासी ब्राह्मणों के अनुरोध पर इन्होंने महाभारत पर पूर्वरूपेण आधारित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326