Book Title: Nirgrantha-2
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 316
________________ तारङ्गा का प्राचीनतर जिनालय मधुसूदन ढांकी उत्तर गुजरात में बड़नगर से आगे ईशान की ओर तारङ्गा का पहाड़ मध्यकाल से निर्ग्रन्थ तीर्थ के रूप में ख्यातिप्राप्त है । गूजरेश्वर सोलंकीपति कुमारपाल विनिर्मित, द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ का भव्योन्नत मेरुप्रासाद को लेकर ५-६ दशकों से यह स्थान विशेष प्रसिद्धि में आ चुका है। प्रस्तुत लेख में इस मन्दिर के सम्बन्ध में या तारंगा का अभिधान एवं इतिहास के विषय में कुछ न कहकर अजितनाथ चैत्य के पीछे अलग समूह में स्थित, वर्तमान में दिगम्बर सम्प्रदाय के अधीन, जो सबसे प्राचीन संभवनाथ का जिनालय है, इसके सम्बन्ध में ही विवरण देंगे । बृहद्गच्छीय सोमप्रभाचार्य का प्राकृत ग्रन्थ जिनधर्मप्रतिबोध (संवत् १२४१/ई० ११८५) में कहा गया है कि पूर्वकाल में यहाँ राजा वत्सराज ने (बौद्ध देवी) तारा मन्दिर का निर्माण करवाया था, और तत्पश्चात (जैन यक्षी) सिद्धायिका का मन्दिर बनवाया था । बाद में यह तीर्थ दिगम्बरों के कब्जे में चला गया, और कुछ समय बाद यहाँ महाराज कुमारपाल विनिर्मित अजितनाथ का जिनालय हुआ । सोमप्रभाचार्य के कथन के कुछ हिस्से पर हमें यकीन नहीं होता । भगवती अम्बिका की तरह सिद्धायिका के भी मन्दिर बनते थे ऐसा किसी प्रकार का अभिलेखीय या साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। और कुमारपाल से पूर्व इस स्थान की श्वेताम्बर तीर्थ के रूप में प्रसिद्धि थी ऐसा भी कहीं उल्लेख नहीं मिलता। दिगम्बर देवालय समुदाय में जो सबसे प्राचीन मन्दिर है उसमें वर्तमान में संभवनाथ जिन प्रतिष्ठित हैं, किन्तु असल में यहाँ मूलनायक के रूप में कौन जिन रहे होंगे वह उत्कीर्ण लेख या पुराने साहित्यिक उल्लेख के अभाव में कहा नहीं जा सकता । मन्दिर के मण्डप के अन्तर्गत सम्वत् ११९२/ई० ११३६ के लेखयुक्त दो समानरूपी कायोत्सर्ग प्रतिमाएँ थीं जो बाद में यहाँ के दिगम्बर अधीन गुफाओं में विराजित की गई है। संभवनाथ के इस जिनालय का निर्माण मरूगूर्जर शैली में हुआ है। मूलप्रासाद वास्तुशास्त्रोक्त 'लतिन' किंवा 'एकाण्डक' जाति का है (चित्र-१), जिस प्रकार पश्चिम भारत में ईस्वी १०३० पश्चात् प्रायः, नहीं मिलता। प्रासाद के संग 'गूढमण्डप' जुड़ा हुआ है। और आगे है 'षड्चतुष्क्य' यानी छचौकी । (देखिये यहाँ तलदर्शन का मानचित्र) व्यङ्ग प्रासाद के अंगों में देखा जाय तो कर्ण, प्रतिरथ और भद्र लिया गया है । प्रासाद के उदय में पीठ का आधाररूप 'भिट्ट' तो आधुनिक 'उत्तानपट्ट' (फर्शबन्धी) के नीचे दब गया है (चित्र - १, ६, ७) । पीठ के घाटों में पद्मपत्रयुक्त 'जाड्यकुम्भ', 'कर्णक' या 'कणालि', कुञ्जराक्षयुक्त 'अन्तरपट्ट', तत्पश्चात् 'कपोतिका' या 'छज्जिका', तथा अन्त में 'ग्रासपट्टी' से पीठ का उदय पूरा हो जाता है (चित्र ७)। पीठोपरि 'मण्डोवर' (भित्ति या दीवार) आरंभ होता है । इसके नीचे वाला हिस्सा 'वेदिबन्ध' से निर्मित है जिस में सादा 'खुरक', बाद 'कुंभ', 'कलश', कुञ्जराक्षयुक्त 'अन्तरपट्ट' और गगारपट्टी युक्त 'कपोतपाली' आती है (चित्र ७) । कुंभ पर कर्णस्थान पर 'अर्धरत्न', प्रतिरथ पर भी अर्धरत्न और भद्र कुम्भ पर उद्गम की शोभा निकाली गई है। 'वेदिबन्ध' पर आनेवाली जंघा रूपकाम (कर्ण पर दिक्पाल और प्रतिरथों पर अप्सराओं की मूर्तियाँ) जो सामान्यतः मन्दिरों की जंघा पर दिखाई देती है, अनुपस्थित है (चित्र-१,२) । सादी ही रख दी हुई जंघा में अन्यथा मध्यबन्ध के रूप में 'ग्रासपट्टी' निकाली गई है और जंघा के ऊपरी हिस्से में भी Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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