Book Title: Nirgrantha-2
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

Previous | Next

Page 286
________________ Vol. II - 1996 कारणवाद के आधार पर ही उत्पादानार्थ सव्यापार होता है । इसलिए सृष्टि, स्थिति और प्रलय के हेतु भूत काल का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता । स्थाली और मूंग तथा अग्नि आदि सामग्री रहेने पर भी जब तक कारणभूत काल उपस्थित नहीं होता तब तक पाक नहीं होता है । यदि यह कहा जाए कि मूंग का परिपाक संपन्न होने से पूर्व विलक्षण अग्नि संयोग का अभाव रहेता है और इसी कारण मूंग का पाक नहीं होता है, अतः मूंग के पाक के प्रति काल के विशेष को कारण मानना निरर्थक है। किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि संयोग के प्रति भी प्रश्न हो सकता है कि वह संयोग पहले ही क्यों नहीं हो जाता ? इसका उत्तर काल द्वारा ही दिया जा सकता है । अतः काल को ही असाधारण कारण अर्थात् एकमात्र कारण मानना पड़ेगा । काल को यदि कार्य मात्र के प्रति असाधारण कारण न माना जाएगा तो गर्भ आदि सभी कार्यो की उत्पत्ति अव्यवस्थित हो जाएगी । यदि किसी अन्य हेतुवादी की दृष्टि गर्भ का हेतु माता-पिता आदि हैं, यह माना जाए तो प्रश्न होगा कि उनका सन्निधान होने पर तत्काल ही गर्भ का जन्म क्यों नहीं हो जाता है । मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र (प्रायः ईस्वी ५५०-५७५) में कालवाद की प्रतिस्थापना करते हुए वैशेषिकसूत्र (ईस्वी आरंभकाल) का निम्न सूत्र प्रस्तुत किया गया है । अपरस्मिन्नपरं युगपत् चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि ।। यह इससे पूर्व है यह इसके पश्चात् है ये दोनों एकसाथ है। इस प्रकार का ज्ञान एवं नवीन और प्राचीन का जो ज्ञान होता है उसका हेतु काल को समझना चाहिए । जैसे वायु गुण वाला होने से द्रव्य है ऐसे ही काल भी गुणवाला होने से द्रव्य है । जैसे अन्य द्रव्य से उत्पन्न न होने से नित्य है इसी प्रकार काल भी अन्य द्रव्य से उत्पन्न न होने से नित्य है। काल एक है। वर्तमान, भूतादि काल का विभाजन कार्य होने से होते है अतः वह भेद गौण है । जैन-दर्शन में तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ई. तीसरी-चौथी शती में काल के निम्न लक्षण प्रतिपादित किए गए है३ । वर्तना परिणाम क्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ॥२२॥ ५ परिवर्तन, परिणमन, क्रियाः, परत्व, अपरत्व ये काल के लक्षण है । उमास्वाति द्वारा प्रस्तुत ये लक्षण वैसे तो वैशेषिकसूत्र में प्रस्तुत लक्षण से साम्यता रखते है फिर भी, इसमें परिवर्तन को भी काल पर आधारित किया गया है। द्वादशारनयचक्र में कालवाद का विभाव को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि किसी भी पदार्थ का यौगपद्य समकालीनता या अयोगपद्य का कथन काल के बिना संभव नहीं है । यथा घट और उसका रूप युगपत् उत्पन्न होता है ऐसा कहना काल के प्रत्यय के अभाव में संभव नहीं है। उसी प्रकार पदार्थों के अयुगपद् भाव की चर्चा भी काल के बिना संभव नहीं है। इसी प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रति पुरुषार्थ भी काल पर आधारित है। कहा भी गया है कि वसंत में ब्राह्मण को यज्ञ, वणिक को मद्य, समर्थ को क्रीडा ओर मुनियों को निष्क्रमण करना चाहिए१५ । समग्र सृष्टि के सजीव और निर्जीव पदार्थों की अनन्त पर्यायों का परिणमन कराने वाला काल ही है और यह काल अपने सामान्य स्वरूप को छोड़े बिना ही भूत, भविष्य और वर्तमान को प्राप्त होता है । इस प्रकार काल एक होकर भी अपने तीन भेदों से भिन्न भी है। यदि ऐसा न माना जाए तब तो वस्तु में विपरिणमन ही शक्य नहीं हो पाएगा और काल ही एक ऐसा कारण है जो कार्य कारण के रूपमें विपरिणमन करने में समर्थ है । यह विपरिणमन परिवर्तन के सामर्थ्य काल के अभाव में पुरुषार्थ, स्वभाव, नियति में भी संभव नहीं है । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326