Book Title: Nirgrantha-2
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 295
________________ २८ जितेन्द्र शाह Nirgrantha सत्ता ही होना चाहिए । अभाव से कोई भी सृष्टि संभव नहीं है । किन्तु इसके विरोध में यह भी कहा जाता है कि यदि हम भाव को ही एक मात्र कारण मानते हैं तो फिर नवीनता या सृष्टि का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा । वस्तु भावांग वह विचार सरणी है जो सत्कार्यवाद का समर्थक है । यद्यपि इस आधार पर भाववाद के प्रसंग में वे सभी दूषण दिखाए जाते है जो सत्कार्य वाद के प्रसंग में प्रस्तुत किए जाते हैं । यदि सृष्टि में अथवा उत्पत्ति में कोई नवीनता न हो तो वह सृष्टि या उत्पत्ति ही नहीं कहलाएगी । नियति, स्वभाव आदि भी भाव के अभाव में संभव नहीं होते हैं । भाव शब्द की व्याख्या ही यही है कि जिससे यह होता है "यद् अयं भवति" । और इसमें निहित अयं शब्द ही स्व का सूचक है। अतः स्वभाववाद भी भाववाद पर आश्रित है । वस्तु के सद्भाव में इन भावों का अभाव होता है । अतः स्वभाव का निर्धारण भाव से ही होता है । भाववाद को अभिव्यक्त करते हुए आचार्य मल्लवादि कहते हैं कि भाव से ही उत्पत्ति होती है । जो अभाव स्वरूप है उससे उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? भवन ही सर्ववस्तु का मूल है। भाव पदार्थ एक ही है। उसमें जो भेद किया जाता है वह उपचरित है, काल्पनिक है। भाव से ही जगत् की उत्पत्ति होती है । अतः जगत् की उत्पत्ति आदि का कारण भाव ही मानना चाहिए । इस प्रकार भाववाद का स्थापन किया गया है। भाववाद का कथन है कि एक मात्र भाव ही कारण है ऐसा मानने पर मिट्टी में घट उत्पन्न होने का भाव क्यों है ? पट होने का स्वभाव क्यों नहीं है ? भाववादियों के पास इस प्रकार की आपत्ति का कोई उत्तर नहीं है । भाव शब्द का अर्थ उत्पन्न होना होता है अर्थात् वस्तु केवल उत्पन्न धर्मा ही होगी, नाश तो वस्तु का धर्म नहीं होगा । अतः नाश की प्रक्रिया जो प्रत्यक्ष सिद्ध है, भाववाद में नहीं घटेगी । इस प्रकार कालवाद, पुरुषवाद, नियतिवाद, स्वभाववाद एवं भाववाद के सिद्धान्त का वर्णन प्रस्तुत ग्रंथ में प्राप्त होता है । अद्वैत कारण की चर्चा करते हुए उपरोक्तवादों का निरूपण किया गया है। इस वर्णन के आधार पर हम कह सकते हैं कि प्राचीन काल में कालादिवाद प्रचलित रहे होंगे किन्तु बाद में वे दर्शन लुप्त हो गए इतना ही नहीं किन्तु तद्तद् वादों की चर्चा एवं खंडन-मंडन भी लुप्त हो गया अत: परवर्ती दार्शनिक ग्रंथों में एतद्विषयक चर्चा प्राप्त नहीं होती है । टिप्पणी : १. कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या । संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः ॥ श्वेताश्वतरोपनिषत्, १/२. २. अथर्ववेद, पृ. ४०५-४०६. ३. कालादापः समभवन्कालाद्ब्रह्म तपो दिशः । कालेनोदेति सूर्यः काले नि विशते पुनः ॥ अथर्व. , पृ. ४०६. कालेन वात: पवते कालेन पृथिवी मही । द्यौर्मही काल आहिता ॥ वही, पृ. ४०६. कालो ह भूतं भव्यं च पुत्रो अजनयत्पुरा । कालादृचः समभवन्यजुः कालादजायत । वही, पृ. ३. कालो यज्ञं समैरयद्देवेभ्यो भागमक्षितम् । काले गन्धर्वाप्सरसः काले लोकाः प्रतिष्ठिताः ॥ वही, पृ. ४. ४. न कर्मणा लभ्यते न चिन्तया वा नाप्यस्ति दाता पुरुषस्य कश्चित् । पर्याययोगाद् विहितं विधात्रा कालेन सर्वे लभते मनुष्यः ॥ महाभारत, "शांतिपर्व," २५/५. न बुद्धिशास्त्राध्ययनेन शक्यं प्राप्तुं विशेषं मनुजैरकाले। मूर्योऽपि चाप्नोति कदाचिदर्थाने कालो हि कार्ये प्रति निविशेषः ॥ वही, "शांतिपर्व," २५/६. ५. नाभूतिकालेषु फलं ददन्ति शिल्पानि मन्त्राश्च तथौषधानि । तान्येव कालेन समाहितानि सिद्ध्यन्ति वर्धन्ति च भूतिकाले ॥ वही, "शांतिपर्व," २५/७. Jain Education Intemational Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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