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निवृत्तिकुल का संक्षिप्त इतिहास
शिवप्रसाद निर्ग्रन्थ दर्शन के श्वेताम्बर आम्नाय के चैत्यवासी गच्छों में निवृत्तिकुल (बाद में निवृत्तिगच्छ) भी एक है। पर्युषणाकल्प की “स्थविरावली" में इस कुल का उल्लेख नहीं मिलता; इससे स्पष्ट होता है कि यह कुल बाद में अस्तित्व में आया। इस कुल का सर्वप्रथम उल्लेख अकोटा से प्राप्त दो प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों में प्राप्त होता है, जिनका समय उमाकान्त शाह ने ई. स. ५२५ से ५५० के बीच माना है। इस कुल में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, शीलाचार्य अपरनाम शीलाङ्क सूरि, सिद्धर्षि, द्रोणाचार्य, सूराचार्य आदि कई प्रभावक एवं विद्वान् आचार्य हुए हैं।
निवृत्तिकुल से सम्बद्ध अभिलेखीय और साहित्यिक दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध होते हैं और ये मिलकर विक्रम संवत् की ६ठीं शती उत्तरार्ध से लेकर वि. सं. की १६वीं शती तक के हैं; किन्तु इनकी संख्या अल्प होने के कारण इनके आधार पर इस कुल के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर पाना प्राय: असंभव है। फिर भी प्रस्तुत लेख में उनके आधार पर इस कुल के बारे में यथासंभव प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
ऊपर कहा जा चुका है कि इस कुल का उल्लेख करने वाला सर्वप्रथम साक्ष्य है अकोटा से प्राप्त धातु की दो प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेख । उमाकान्त शाह ने इनकी वाचना इस प्रकार दी है :
१. ॐ देवधर्मोयं निवृत्ति कुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य ।
२. ॐ निवृत्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य । वाचनाचार्य और क्षमाश्रमण समानार्थक माने गये हैं, अत: इस लेख में उल्लिखित जिनभद्रवाचनाचार्य और विशेषावश्यकभाष्य आदि ग्रन्थों के रचयिता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण एक ही व्यक्ति हैं । उक्त प्रतिमाओं में मूर्तिकला की कालगत विशेषताओं के आधार पर शाह जी ने दूसरी जगह इनका काल ई. स. ५५० से ६०० के बीच माना है, जो विशेष सही है। परम्परानुसार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की आयु १०४ वर्ष थी, अत: पं० मालवणिया ने इनका जीवनकाल वि. सं. ५४५ से वि० सं० ६५० / ई. स. ४८९ से ई. स. ५९४ माना है।
आचाराङ्ग और सूत्रकृताङ्ग की टीका के रचयिता शीलाचार्य अपरनाम तत्त्वादित्य तथा चउप्पन्नमहापुरिसचरियं (वि. सं. ९२५ / ई. सन् ८६९) के रचनाकार शीलाचार्य अपरनाम विमलमति अपरनाम शीलाङ्क भी स्वयं को निवृत्तिकुलीन बतलाते हैं। मुनि जिनविजय', आचार्यसागरानन्दसूरि', श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई आदि विद्वानों ने आचाराङ्ग-सूत्रकृताङ्ग की टीका के रचनाकार शीलाचार्य अपरनाम तत्त्वादित्य तथा चउप्पन्नमहापुरिसचरियं के कर्ता शीलाचार्य अपरनाम विमलमति अपरनाम शीलाङ्क को समसामयिकता के आधार पर एक ही व्यक्ति माना है। पं. मालवणिया और प्रा. मधुसूदन ढांकी ने भी इन आचार्यों की समसामयिकता एवं उनके समान कुल के होने के कारण उक्त मत का समर्थन किया है। इसके विपरीत चउप्पन्नमहापुरिसचरियं के सम्पादक श्री अमृतलाल भोजक' का मत है कि “यद्यपि दोनों शीलाचार्यों की समसामयिकता असंदिग्ध है, किन्तु उन दोनों आचार्यों ने अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व स्पष्ट करने के लिए ही अपना अलग-अलग अपरनाम भी सूचित किया है, अत: दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं और उन्हें एक मानना उचित नहीं।" चूंकि एक ही समय में, एक ही कुल में, एक ही नाम वाले दो आचार्यों का होना उसी प्रकार असंभव है जैसे एक ही परिवार में एक ही पिता के दो सन्तानों का एक ही नाम होना; अत: इस आधार पर भोजक का मत सत्यता से परे मालूम होता है। अलावा इसके उस ज़माने में श्वेताम्बर परम्परा के मुनिजनों की संख्या भी अल्प ही थी।
उपमितिभवप्रपंचकथा (वि. सं. ९६२ / ई. स. ९०६), सटीक न्यायावतार, उपदेशमालाटीका आदि के
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