Book Title: Nirgrantha-2
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 287
________________ जितेन्द्र शाह Nirguantha कालक्रम से ही पुरुष आत्मलाभ प्राप्त कर सकता है और जब तक काल परिपक्व नहीं होता तब तक मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं होती । संसार की अनादि अनन्तता काल के द्वारा ही सिद्ध हो सकती है । क्रिया और जीव के कर्मबंधादि क्रिया भी काल के कारण संभव है। समय मुहूर्तादि भी काल के ही कारण संभव है । अन्त में यह कहा गया है कि काल ही भूतों को पक्व करता है, काल ही प्रजा का संहरण करता है । काल ही सोए हुए को जगाता है । अतः काल दुरतिक्रम है । काल ही पदार्थों की उत्पत्ति करता है, उत्पन्न पदार्थो का पाक करता है अर्थात् उत्पन्न पदार्थ का संवर्धन काल से ही होता है । वही अनुकुल नूतन पर्यायों को उपस्थित कर उनके योग से उत्पन्न वस्तु को उपचित करता है। काल ही उत्पन्न वस्तुओं का संहार करता है अर्थात् वस्तु में विद्यमान पर्यायों के विरोधी नवीन पर्याय का उत्पादन काल के कारण ही होता है और इस प्रकार पूर्व पर्याय का नाश संहार भी काल के कारण होता है। अन्य कारणों के सुप्त-निर्व्यापार रहने पर काल ही कार्यों के सम्बन्ध में जागृत रहता है । अत: यह कह सकते हैं कि सृष्टि, स्थिति, प्रलय के हेतुभूत काल का अतिक्रमण करना कठिन है । खंडन :- द्वादशारनयचक्र में कालवाद का खंडन संक्षेप में ही किया गया है । स्वभाववाद के उपस्थापन में कालवाद का खंडन करते हुए यह कहा गया है कि १. वस्तु अपने स्वभाव के ही कारण उस रूप में होता है । २. काल को ही एक मात्र तत्त्व मानने पर तो कार्य कारण का विभाग संभावित नहीं हो सकेगा । ३. इसी प्रकार काल ही को एकमात्र तत्त्व मानने पर सामान्य एवं विशेष का व्यवहार भी संभावित नहीं हो सकता । ४. यदि ऐसा मान लिया जाए कि काल का ऐसा स्वभाव है तब तो स्वभाववाद का ही आश्रय लेना पड़ेगा । ५. यदि आप काल को व्यवहार पर आश्रित करेंगे तो भी दोष आएगा क्योंकि इससे काल की स्वतंत्र सत्ता नहीं रहेगी । पुनः पूर्व, अपर आदि व्यवहार का दोष होने पर लब्ध काल का भी अभाव हो जाएगा और इस प्रकार काल को आधार मानकर जो बात सिद्ध की गई है वे सब निरर्थक हो जाएगी । द्वादशारनयचक्र के अतिरिक्त निर्ग्रन्थ-दर्शन के अनेक ग्रंथों में भी कालवाद का खंडन किया गया है । यदि काल का अर्थ समय माना जाए अथवा काल को प्रमाणसिद्ध द्रव्य का पर्याय मात्र माना जाए अथवा काल को द्रव्य की उपाधि माना जाए या इसे स्वतंत्र पदार्थ के रुप में माना जाए । किसी भी स्थितिमें एकमात्र उसको ही कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि कारणान्तर के अभावमें केवल काल से किसी की भी उत्पत्ति नहीं होती और यदि एकमात्र काल से भी कार्य की उत्पत्ति संभव होगी तो एक कार्य की उत्पत्ति के समय अन्य सभी कार्यों की भी उत्पत्ति की आपत्ति होगी । यदि केवल काल ही घयदि कार्यों का जनक माना जाएगा तो घट की उत्पत्ति मात्र मृद में ही न होकर तन्तु आदि में भी संभव होगी क्योंकि इस मत में कार्य की देशवृत्तिता का नियामक अन्य कोई नहीं है और यदि देश वृत्तिता ते नियमनार्थ तत्काल में तत्तत् देश को भी कारण मान लिया जाएगा तो कालवाद का परित्याग हो जाएगा । इस प्रकार कालवाद की स्थापना एवं खंडन किया गया है। निष्कर्ष यह है कि केवल कालवाद ही एकमात्र सम्यग् है यह मानने पर दोष आएगा । अतः काल को ही एकमात्र कारण मानना युक्ति संगत नहीं है। काल एक कारण हो सकता और उसके साथ-साथ अन्य कारणों की भी संभावना का निषेध Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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