Book Title: Nirgrantha-2
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

Previous | Next

Page 288
________________ Vol. II - 1996 कारणवाद नहीं कर सकते है। स्वभाववाद: पूर्वोक्त कालवाद की तरह ही स्वभाववाद का मानना है कि जगत् की विविधता का कारण स्वभाव ही है६ । स्वभावत: ही वस्तु की उत्पत्ति एवं नाश होता है । पदार्थों में भिन्नता या समानता का कारण भी स्वभाव है यथा- अग्नि की उष्णता और जल की शीतलता स्वभावगत ही है । आम की गुठली से आम और बेर की गुठली से बेर ही उत्पन्न होगा क्योंकि उनका स्वभाव ऐसा ही है। भारतीय दर्शन परम्परा के प्राचीन ग्रंथो में भी स्वभाववाद का विवेचन प्राप्त होता है। उपनिषदो में स्वभाववाद का उल्लेख मिलता ही है । स्वभाववादी के अनुसार विश्व में जो कुछ होता है वह स्वभावतः ही होता है। स्वभाव के अतिरिक्त कर्म, ईश्वर या अन्य कोई कारण नहीं है। अश्वघोषकृत बुद्धचरित (ईस्वी दूसरी शती) में स्वभाववाद की अवधारणा को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि काँटे की तीक्ष्णता, मृग एवं पक्षियों की विचित्रता, ईख में माधुंय, नीम में कटुता का कोई कत्ती नहीं है, वे स्वभावतः ही है। इसी प्रकार स्वभाववाद की चर्चा गुणरत्नकृत षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति में तथा आचार्य नेमिचंद्रकृत गोम्मटसार२० (ईस्वी १०वीं शती अंतिमचरण) में भी मिलती है। महाभारत में भी स्वभाववाद का वर्णन प्राप्त होता है । तदनुसार शुभाशुभ प्रवृत्तियों का प्रेरक स्वभाव हैं। सभी कुछ स्वभाव से निर्धारित है। व्यक्ति अपने प्रयत्न या पुरुषार्थ से उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता । सभी तरह के भाव और अभाव स्वभाव से प्रवर्तित एवं निवर्तित होते हैं। पुरुष के प्रयत्न से कुछ नहीं होता । गीता में कहा गया है कि लोक का प्रवर्तन स्वभाव से ही हो रहा है । इसी प्रकार माठरवृत्ति (ईस्वी चौथी शती), उदयनाचार्य कृत न्यायकुसुमांजलि (प्रायः १२वीं शती) एवं अज्ञात कर्तृक सांख्यवृत्ति (प्राक मध्यकालीन ?)में भी स्वभाववाद के उल्लेख प्राप्त होते है । हरिभद्रकृत शास्त्रवार्तासमुच्चय (प्रायः ईस्वी ७७०-७८०) में स्वभाववाद की अवधारणा को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि प्राणी का मातृगर्भ में प्रवेश करना, बाल्यावस्था प्राप्त करना सुखद-दुःखद अनुभवों का भोग करना इनमें कोई भी घटना स्वभाव के बिना नहीं घट सकती । स्वभाव ही सब घटनाओं का कारण है । जगत् की सभी वस्तुएँ स्वतः ही अपने-अपने स्वरूप में उस उस प्रकार से वर्तमान रहेती है तथा अन्त में नष्ट हो जाती है जैसे पकने के स्वभाव से युक्त हुए बिना मूंग भी नहीं पकती भले ही कालादि सभी कारण सामग्री उपस्थित क्यों न हो । जिसमें पकने का स्वभाव ही नहीं है वह मूंग का कुटका कभी नहीं पकता तथा विशेष स्वभाव के अभाव में भी कार्य विशेष की उत्पत्ति यदि संभव मानी जाए तो अवाञ्छनीय परिणाम का सामना करना पड़ेगा । यथा मिट्टी में यदि घड़ा बनाने का स्वभाव है किन्तु कपड़ा बनाने का स्वभाव नहीं है ऐसा मानने पर मिट्टी से कपड़ा बनने की आपत्ति भी आ पड़ेगी । यही वर्णन नेमिचन्द्रकृत प्रवचनसारोद्धार (प्रायः १२वीं शती) एवं उसकी वृत्ति में भी प्राप्त होता है। स्वभाववाद की समीक्षा : स्वभाववाद की समीक्षा इस प्रकार की गई है कि स्वभाव का अर्थ क्या है ? स्वभाव वस्तु विशेष है ? या अकारणता ही स्वभाव है ? या वस्तु के धर्म को ही स्वभाव माना जाता है। १. स्वभाव को ही वस्तु विशेष माना जाए ऐसा कहने पर यह आपत्ति आती है कि वस्तु विशेषरूप स्वभाव को सिद्ध करनेवाला कोई भी साधक प्रमाण के बिना ही स्वभाव का अस्तित्व मानने पर अन्य पदार्थो का अस्तित्व भी स्वीकार करना पड़ेगा५ ।। २. स्वभाव मूर्त है या अमूर्त । यदि मूर्त मान लिया जाए तब तो कर्म का ही दूसरा नाम होगा । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326