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अकलंकदेव कृत आप्तमीमांसाभाष्य एवं सविवृति लघीयस्त्रय के उद्धरणों का अध्ययन कमलेश कुमार जैन
पुरातन निर्ग्रन्थ परम्परा, जिसे आज हम जैन परम्परा के रूप में जानते हैं, का साहित्य सघन एवं गम्भीर है। जैन मनीषियों एवं लेखकों ने ज्ञानविज्ञान की सभी विद्याओं पर गहन एवं तलस्पर्शी चितन किया है । इस कारण जैन परम्परा में भी बहुतायत में साहित्य रचना हुई है ।
जैनाचार्यों ने प्राचीन आगम एवं आगमिक प्राकृत साहित्य, मध्यकालीन प्राकृत और संस्कृत साहित्य, अपभ्रंश साहित्य तथा व्याख्या-नियुक्ति, भाष्य चूर्णि टीका आदि- साहित्य में अपने मूल सिद्धान्तों की प्रस्तुति, सिद्धान्तों की व्याख्या एवं अन्य मौलिक रचनाएँ लिखते समय अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए, प्रमाणित या पुष्ट करने के लिए अथवा उस पर अधिक जोर देने के लिए अन्य परम्पराओं-जैनेतर परम्पराओं में स्वीकृत सिद्धान्तों, सिद्धान्तगत दार्शनिक मन्तव्यों की समीक्षा, आलोचना अथवा निराकरण करने में प्रचुरमात्रा में अवतरण / उद्धरण उद्धृत किये हैं ।
इन उद्धरणों में बहुसंख्या में ऐसे उद्धरण मिलते हैं, जिनके मूल स्रोत ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। बहुत से ऐसे उद्धरण प्राप्त होते हैं, जो मुद्रित ग्रन्थों में उसी रूप में नहीं मिलते, उनमें पाठान्तर दिखाई देते हैं कुछ ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं, जिनका उपलब्ध ग्रन्थ में अस्तित्व ही नहीं है ।
उपर्युक्त उद्धरणों में मुख्य रूप से वैदिक साहित्य, प्राचीन जैन आगम एवं आगमिक साहित्य, बौद्ध साहित्य तथा षड्दर्शनों से सम्बद्ध साहित्य के उद्धरण मिलते हैं। इसके साथ-साथ लौकिक, नीतिपरक तथा साहित्यिक प्राप्त अप्राप्त ग्रन्थों से भी उद्धरण पाये जाते हैं ।
उपर्युक्त जैन साहित्य गीतार्थ (आगम विद्) आचार्यों द्वारा लिखा गया है या संकलित है। चूँकि आचार्यों द्वारा उद्धृत या अवतरित उद्धरण उस उस समय में प्राप्त ग्रन्थों से लिये गए हैं, इसलिए इन उद्धरणों की प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध है। इन आचार्यों के द्वारा लिखित ग्रन्थों में प्राप्त उद्धरणों के आधार पर वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थों से उनकी तुलना एवं समीक्षा की जाये तो उनमें तदनुसार संशोधन / परिवर्तन भी किया जा सकता है ।
ऐसे ग्रन्थ या ग्रन्थकर्ता, जिनके नाम से उद्धरण तो मिलते हैं, परन्तु उस ग्रन्थ या ग्रन्थकार की जानकारी अभी तक अनुपलब्ध है, ऐसे उद्धरणों का संकलन तथा उनका विशिष्ट अध्ययन महत्वपूर्ण निष्कर्ष दे सकता है। इससे ग्रन्थकारों का समय तय करने में बहुत सहायता मिल सकती है। साथ ही लुप्त कडियों को प्रकाश में लाया जा सकता है ।
प्रस्तुत निबन्ध में आचार्य अकलंकदेव रचित आप्तमीमांसाभाष्य तथा सविवृति लघीयस्त्रय, इन दो ग्रन्थों के उद्धरणों का संक्षिप्त अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास है ।
अकलंकदेव (प्रायः ईस्वी ७२० ७८०) जैन परम्परा के एक प्रौढ़ विद्वान एवं उच्चकोटि के दार्शनिक ग्रन्थकार है। उनके साहित्य में तर्क की बहुलता और विचारों की प्रधानता है। अकलंक का लेखन समय बौद्धयुग का मध्याहन काल माना जाता है। उस समय दार्शनिक, धार्मिक, राजनैतिक और साहित्यिक क्षेत्र में बौद्धों का अधिक प्रभाव था । संभवतः इसी कारण अकलंक के साहित्य में बुद्ध और उनके मन्तव्यों की समीक्षा / आलोचना बहुलता से पायी जाती है ।
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