Book Title: Neminahacariya Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, H C Bhayani, Madhusudan Modi
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 392
________________ १६६८ ] सत्तमभवि संखवृत्तं तु [१६६२ ] ता नरिंदह पुरउ विण्णत्तु उज्जाणिय-माणविण उवलद्ध-केवल-महिमु भविय-कमल- पडिवोह - रवि तुम्हहं जणउ सु राय - रिसि वृद्धावग- माणवह विलसंत- सिंगार - विहि संखु नराहि केवलिहि वह सह दइयहं वंधुर्हि वि देव विवि- मुणि- सहस-सेविउ । भविय सरणु उज्जाणि आविउ ॥ राय - रिसीण पहाणु । सिरि- सिरिसेणऽभिहाणु || [१६६३] अह ओसिय दाणु वियरेवि पर सार - परियण-समन्निउ । वहु-वियप वंदियण-वन्निउ ॥ पय पउम पण मेइ | उचिय-ठाणि निविसे । [९] [१६६४ ] अह केवलिणा भणियं नर-वर जीवाण इह विहेयवं । मुत्तूण सुद्ध धम्मं भुवणे वि न विज्जए अवरं ॥ १ ॥ Jain Education International 2010_05 [१६६५ ] जम्हा अणाइ भव- सायरम्मि जीवेण परिभमंतेण । आवज्जिऊण चत्ता अनंत-ठाणेसु धणे- निवहा ||२|| [१६६६ ] तप्पच्चओ किलेसो अ-परिमिओ गरुय कम्म-वंधो य । संजाओ पायं पुण ते भुत्ता अवर-धुत्तेहिं ॥३॥ [१६६७ ] मुक्काओ तरुणीओ अनंतसो असम- जोव्वण भराओ । जण रक्खि पुर्ण स च्चिय ताण वि गई पच्छा || ४ || [ १६६८ ] एक्केक्केण जिणं भुत्तं रज्जं अनंतसो भुवणे । आ-वेज्ज - विमाणा पत्ताओ सुर-सिरीओ वि ॥५॥ १६६३. ४. क. विमलसत, रू. क. ख, निवसेइ. For Private & Personal Use Only હેર www.jainelibrary.org

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