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की अनुभूति होती है। यदि वह ज्ञान सचमुच अपने में उत्पन्न हो जाए फिर तो कहना ही क्या ? ज्ञान भी आत्मा में है और आनन्द भी जो शास्त्र अखण्ड महा-ज्योति को जगाने वाला है, उसे नन्दी कहते हैं। जब आत्मा भावसमृद्धि से समृद्ध हो जाता है, तब वह पूर्णतया सच्चिदानन्द बन जाता है। उस निःसीम आनन्द का जो असाधारण कारण है, वह नन्दीसूत्र कहलाता है। यह भी कोई नियम नहीं है कि आग ज्ञानवर्द्धक ही होता है, परन्तु ज्ञान नियमेन आनन्द वर्द्धक ही होता है। इसी कारण देववांचकजी मे प्रस्तुत आगम का नाम नन्दी रखा है ।
नन्दी सूत्र के संकलन में हेतु
देव वाचकजी जिनवाणी पर अविच्छिन्न एवं दृढ़ श्रद्धा रखते थे । और साथ ही निर्बंध प्रवचन को अविच्छिन्न रखने के लिए प्रयत्नशील थे, इसी उद्देश्य को लक्ष्य में रखकर उन्होंने मन्दीसूत्र का संक लन किया। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यकुचारित्र संघसेवा, प्रवचन रक्षा, निर्जरा इत्यादि संकलन में हेतु है । इसी को दूसरे शब्दों में प्रयोजन भी कहते हैं । क्योंकि प्रयोजन के बिना बुद्धिमान तो क्या ? साधारण लोग भी प्रवृत्ति करते हुए देखे नहीं जाते । दृढ़निष्ठा से जिन शासन व प्रवचनभक्ति करना ही शासनदेव की भक्ति है। भवसमुद्र को पार करने के लिए सर्वोत्तम नाव श्रुतसेवा ही है। श्रीसंघ की सेवा करना कर्मयोग है | आगमों पर तथा तत्वों पर दृढ़निष्ठा रखना, आगमों की रक्षा करना, और उनका अध्ययन करना ज्ञानयोग है। देव, गुरु, आगम और धर्म के लिए सहर्ष तन, मन और जीवन-साधन द्रव्य को भी समर्पण कर देना, इसे भक्तियोग कहते हैं । इस प्रकार त्रिपुटी संगम ही आत्मकल्याण का अमोष उपाय है। अतः देववाचकजी के सन्मुख नन्दीसूत्र के संकलन में रत्नत्रय या योगत्रय की अराधना करना ही मुख्य हेतु. रहा है।
नन्दीसूत्र के संकलन में निमित्त
आज से १५०० वर्ष पहले भी ऐसा कोई आगम उपलब्ध नहीं था, जिसमें पांच ज्ञान का सविस्तर वर्णन हो । बीज की तरह बिखरा हुआ ज्ञान का वर्णन उस युग की तरह आज भी अनेक आगमों में उपलब्ध है । संभव है तत्कालीन उपलब्ध आगमों में से बिखरे हुए ज्ञान कणों को संगृहीत करके देववाचकजी ने संपादित किया हो अथवा व्यवच्छिन्न हुए ज्ञान प्रवादपूर्व के शेषावशेष को संकलित करके नन्दी की रचना की हो, क्योंकि देववाचक भी पूर्वघर थे, ज्ञान का वर्णन जिस क्रम या शैली से नन्दी सूत्र में किया है, वैसा क्रम अन्य आगमों में यत्किञ्चित् रूपेण तो अवश्य है, किन्तु पूर्णतया यथास्थान संपादित नहीं है। इससे जान पड़ता है कि उस समय में शेषावशेष ज्ञानप्रवादपूर्व का आधार लेकर नन्दीसून की रचना या संकलन किया गया हो, क्योंकि संकलन के समय दृष्टिवाद का केवल ढांचा ही रह गया था, वही देववाचकजी ने ज्यों-का-त्यों नन्दीसूत्र में निरूपित कर दिया ।
नन्दीसूत्र के अन्तर्गत आवश्यक व्यतिरिक्त जितने सूत्र हैं, उनमें 'नन्दी' का उल्लेख मिलता है, ऐसा क्यों ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि समवायाङ्ग सूत्र में जैसे समवायाङ्ग का परिचय दिया हुआ है, वैसे ही नन्दी में नन्दी का उल्लेख किया है। प्राचीनकाल में कुछ ऐसी ही पद्धति दृष्टिगोचर होती है जैसे कि यजुर्वेद में यजुर्वेद का उल्लेख पाया जाता है।'
१. यजु० अ० १२, मंत्र ४ ।