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२७२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म
'प्रासाद होने के कारण यह "चौमुखा जी" के नाम से भी प्रसिद्ध है। मन्दिर सादा, विशाल तथा तिमंजिला है। पित्तलहर मन्दिर के सुरभिलेख से पता चलता है कि दिलवाड़ा में उस समय ३ मन्दिर ही थे। ऐसा अनुमान है कि १४५८ ई० में यह मन्दिर बनना प्रारम्भ हुआ होगा एवं संघवी मण्डलिक ने ही इसे बनवाया होगा। लेख में "राजाधिराज श्री कुंभकरण विजय राजे" लिखा हुआ है। मन्दिर के गंभारे के बाहर चारों तरफ सुन्दर कुराई की छटा है । इस अलंकृत खुदाई में खड्गासन प्रतिमाएँ तथा आचार्यों, श्रावकों, श्राविकाओं, यक्षों व देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं। इस मन्दिर के दो तोरण बहुत ही कलात्मक हैं, जिसमें प्रत्येक में ५१ मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं, चारों दिशाओं के द्वारों के सम्मुख मण्डप हैं, जिनके शिखरों की छतें कलापूर्ण हैं । तीनों मंजिलों की प्रत्येक तल पर पार्श्वनाथ की चौमुखी प्रतिमा विराजमान है। (ङ) कुन्थुनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर :
दिलवाड़ा से अचलगढ़ जाने वाले मार्ग के मुख पर ही यह मन्दिर अवस्थित है । इस मन्दिर के १४३७ ई० के शिलालेख के अनुसार गोविन्द संघाधिपति यहाँ मूलसंघ, बलात्कारगण, सरस्वती गच्छ के भट्टारक पद्मनन्दी के शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र सहित तीर्थ यात्रा को आये और समस्त दिगम्बर संघ ने इस मन्दिर का निर्माण कराया। उस समय आबू में राजधर देवराज चूंडा का राज्य था। मन्दिर में गर्भगृह, सभा मण्डप और अर्ध-मण्डप हैं। इसमें मूलनायक भगवान कुन्थुनाथ की २' फीट १०" ऊँची श्वेतवर्ण पद्मासन प्रतिमा है एवं दोनों पार्यों में एक-एक तथा आगे तीन मूर्तियाँ विराजमान हैं । सभी मूर्तियाँ श्वेत पाषाण की व पद्मासन मुद्रा में हैं। मूलमूर्ति सम्भवतः ११वीं-१२वीं शताब्दी की है। यह जमीन से उत्खनन द्वारा निकली थी, ऐसी लोकोक्ति है। (च) मन्दिर वर्धमान स्वामी :
यह महावीर मन्दिर, दिलवाड़ा से पूर्वोत्तर दिशा में कोई साढ़े तीन मील दूर है । इसका निर्माण भी १५वीं शताब्दी में हुआ था। वर्तमान में इसके मूलनायक भगवान आदिनाथ हैं, जिनके पावों में पार्श्वनाथ और शान्तिनाथ तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं, किन्तु मन्दिर की ख्याति महावीर के नाम से ही है। अनुमानतः बीच में कभी मूलनायक का स्थानान्तरण किया गया होगा। यह मन्दिर एक परकोटे के मध्य में स्थित है और गर्भगृह के सम्मुख शिखरयुक्त गूढ़मण्डप भी है । उसके सामने खुला चबूतरा है, जिस
१. अप्रजैलेस, क्र० ४०७, पृ० १६१ । २. वही, क्र० ४४१, पृ० १७३ । ३. भादिजैती, ४, पृ० १२८ ।
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