________________
जेन काल : ३१७ प्रतिमा ' तथा निकट से ही जमीन से १८५६ ई० में खोजी गई ९-१० संगमरमर की १२वीं शताब्दी के अभिलेख वाली प्रतिमाओं से सिद्ध होता है कि यह जिन मन्दिर ही रहा होगा। इसका स्थापत्य आबू के मन्दिरों जैसा है। टॉड व फग्यूसन ने भी इसे जैन मन्दिर ही माना है। जैन परम्परा के प्रमाणों के अनुसार विग्रहराज ने कई जैन आश्रम निर्मित करवाये और उसने “राजविहार", जो सम्भवतः सरस्वती मन्दिर ही था, के ऊपर झण्डा फहराया। सम्भवतः यह एक बड़ा शिक्षा केन्द्र रहा होगा । ज्ञान, विज्ञान, काव्य व कला की कई शाखाओं का अध्ययन-अध्यापन यहाँ होता रहा होगा, तभी विग्रहराज ने कोई नाटक भी लिखा । १८५ फीट लम्बे और ५७१ फीट चौड़े भवन की मुख्य दीवार ११३ फीट मोटी व ५६ फीट ऊँची है। यह स्थापत्य की उच्च शैली का प्रतीक है। इसमें सात मेहराबें हैं । केन्द्रीय मेहराब २२ फीट ३ इंच और शेष १३ फोट ५ इंच की हैं। मध्यवर्ती बरामदे के पश्चात् २४८ फीट लम्बा और ४० फीट चौड़ा स्तम्भों पर टिका हुआ समतल छत वाला मण्डप है । यह छत अन्दर की ओर ९ अष्टकोणीय खण्डों में विभक्त है, जो सात मेहराबों, मुख्य दीवार और परिसर के दोनों कोनों के अनुरूप हैं। मण्डप के स्तम्भों की ५ कतारें हैं और कुल ७० स्तम्भ हैं, जो तक्षण की दृष्टि से अत्यन्त मोहक हैं। जटिल अलंकरण युक्त स्तम्भ, कोई भी दो एक जैसे नहीं हैं। सर्वत्र नक्काशी कृत ताक व तक्षण कृत घोड़ियाँ आदि हैं।
इस प्रकार जैन स्थापत्य के इस स्वर्ण काल में तक्षण के आदर्श प्रतिमान निर्मित हुये, जिनका स्थापत्य की दुनिया में चिरस्मरणीय नाम है। तक्षण की इस प्रगति से जैन मन्दिरों से पवित्रता व पूर्णता का ह्रास हो गया और इस पराकाष्ठा के बिन्दु से यह ह्रास अद्यतन जारी है। इस काल में मन्दिरों की संरचना में विशालता, संयोजन में भव्यता व शिल्प में और उत्कृष्टता आई। देवी-देवताओं और स्त्रियों की मूर्तियों का भी अलंकरण के लिये प्रयोग हुआ । महाकाव्यों के कथानक व कई कथा प्रसंग भी उकेरे गये । मन्दिर के साथ-साथ मूर्तिकला का भी विकास हुआ और उसने धीरे-धीरे कलात्मकता के चरम आदर्श को पा लिया । (२) मध्यकाल:
१३वीं शताब्दी के पश्चात् लगभग एक शताब्दी तक मन्दिर निर्माण के उल्लेखनीय
१. एरिराम्युअ, १९१८। २. जरनल एशि० सो० बेंगाल, ७, पृ० ५१ । ३. टॉड, एनल्स, २, पृ० ८९६-९०० ।
४. हिस्ट्री इ० ऐण्ड ई० आकि०, पृ० २६३ । .. ५. गाओसि, ७६, पृ० ३७० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org