Book Title: Madhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Author(s): Rajesh Jain Mrs
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 499
________________ ४७६ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म १५. मूर्तिकला में योगदान : जैन साधुओं की प्रेरणा, श्रावकों की धर्म भावना व धन व्यय करने की सामर्थ्य के कारण जिन प्रतिमाओं की स्थापना व प्रतिष्ठा जैनधर्म में पुण्य कृत्य माना जाता रहा है। राजस्थान में पीतल, सप्तधातु, पंचधातु, अष्टधातु, संगमरमर, रंगीन प्रस्तर, सामान्य प्रस्तर यहाँ तक कि हीरे व पन्नों को भी प्रतिमाएं हजारों की संख्या में हैं। आज भी उत्खनन में भरतपुर, चंद्रावती, बसंतपुर, बघेरा एवं अन्य कई प्रदेशों से मूर्तियां निकलती रहती है, जो जैन मूर्तिकला की अतीत की संपन्नता की द्योतक हैं। जैन शिल्प के कुछ महत्वपूर्ण प्रतीक जैसे नंदीश्वर द्वीप, सहस्त्रकूट चैत्यालय, चौबीसी, पंचतीर्थी आदि अपने आप में विशिष्ट हैं। आबू अचलगढ़ की १०८ मन पीतल की भारी प्रतिमा जैन मूर्तिशिल्प का अनुपम उदाहरण है। गुणात्मक एवं परिमाणात्मक दृष्टि से जैन मूर्ति कला का राजस्थान की संस्कृति में महत्वपूर्ण योगदान है । १६. चित्रकला में योगदान : मध्यकाल में जैनमत में कला को जो संरक्षण मिला है, उससे भारतीय चित्रकला की समृद्धि ही नहीं बढ़ी, अपितु कला इतिहास की लुप्त कड़ियों का भी पता चला है । जैन ग्रंथ भंडारों के ताडपत्रीय व प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों के जो लघुचित्र मिलते हैं, उनसे ही पश्चात्वर्ती राजस्थानी कला की विविध शैलियाँ, मुगल मिश्रित शैली, यहाँ तक कि आधुनिक चित्रकला की कई प्रतीकात्मक विधाएं भी अस्तित्व में आई हैं। कतिपय कलामर्मज्ञों ने इसे अपभ्रंश शैली का नाम दिया है, जो युक्तियुक्त नहीं है। जैन चित्रों की रेखाओं की कमनीयता, रंग संयोजन, लोक जीवन का प्रकटीकरण, तत्कालीन वेशभूषा का चित्रण, धार्मिक आख्यानों का अवलंबन आदि महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं । वस्त्रपट्ट, काष्ठफलक, विज्ञप्ति पत्र आदि का सूक्ष्म चित्रण, कला ग्रंथों में लेखन के माध्यम से ही रिक्त स्थान छोड़कर कमल, स्वस्तिक आदि निर्मित करना जैनियों के कलाप्रेम का सूचक है। तांत्रिक कला, जंबू द्वीप, विश्व द्वीप, सृष्टि पुरुष, भौगोलिक चित्रण आदि की दृष्टि से जैन कला का समकालीन चित्र विधाओं से कोई साम्य नहीं है । वस्तुतः जैन कला अपनी अनोखी विशेषताओं के कारण कला जगत को महत्वपूर्ण देन है। उपरोक्त मूल्यांकन एवं योगदान के स्वरूपों के आंकलन से स्पष्ट है कि मध्यकाल में जैनधर्म की सांस्कृतिक भूमिका, राजस्थान की सांस्कृतिक गरिमा में ही दृद्धि नहीं करती, अपितु संपूर्ण भारत के सतरंगो सांस्कृतिक इतिहास पर भी गौरवपूर्ण, अमिट, मंगलकारी व चिरस्मरणीय छाप छोड़ती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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