Book Title: Madhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Author(s): Rajesh Jain Mrs
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 497
________________ ४७४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म बनाया गया। जैन साहित्य भाषा विज्ञान की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। इसका महत्त्व सामाजिक, सांस्कृतिक व इतिहास लेखन की दृष्टि से भी है। जैन साहित्य नैतिक मूल्यों का संरक्षक और भारतीय अध्यात्म चेतना का प्रतीक है । इसकी प्रमुख विशेषताएं विविधता व विशालता, भाषागत उदारता, लोकप्रचलित भाषा का उपयोग, रस वैविध्य, विधा वैविध्य व लोक मंगलकारी होना है। अपभ्रश साहित्य का तो मुख्य केन्द्र ही राजस्थान था। वस्तुतः साहित्यिक योगदान को दृष्टि से जैन साहित्य का महत्व अतुलनीय है। ११. साहित्य संरक्षण में योगदान : दूरदर्शी जैनाचार्यों ने सम्भवतः मुस्लिम विध्वंस की विभीषिका को पहले से ही भांप लिया था । अतः १४वीं शताब्दी के पश्चात् से ही मौलिक सृजन के साथ-साथ ग्रन्थों का प्रतिलिपिकरण व ग्रन्थ भण्डारों, मन्दिरों आदि में उनका संग्रहण जारी रहा । जैन मत में ग्रन्थ लिखवाकर भेंट देने की नई परम्परा विकसित हुई, जिससे शास्त्र भण्डार समृद्ध होते गये। मुस्लिम विध्वंस के समय सुदूर स्थानों पर इनको स्थापना की गई। जैसलमेर के शास्त्र भण्डार इसीलिये सुरक्षित रह पाये, जो ज्ञान की अनमोल निधि हैं । राजस्थान में लगभग २०० ज्ञान भंडार मंदिरों, उपाश्रयों या व्यक्तिगत अधिकार में हैं, जिनमें ३ लाख से भी अधिक ग्रन्थ संग्रहीत हैं। शास्त्र भंडारों की उपयोगिता कलात्मक प्रतिमानों के संरक्षण, इतिहास सर्जन, साहित्य सृजन केन्द्र, अध्ययन व शिक्षण केन्द्र आदि रूपों में रही। इनमें ताड़पत्रीय ग्रन्थों, कागज ग्रन्थों, वस्त्र-पट्ट, काष्ठफलक, विज्ञप्ति पत्र आदि का विशाल संग्रह है। अभी तो इनका सूचीकरण भी पूर्ण नहीं हो पाया है। राजस्थान के जैन ग्रन्थगारों में अजैन ग्रन्थ भी हैं। पूर्व-मध्यकाल में भी शास्त्र भण्डार होते थे, किन्तु ये अब अस्तित्व में नहीं हैं, किन्तु जितने भी मध्यकाल के अभी अवशिष्ट हैं, वे सम्पूर्ण देश के लिये अनमोल निधि हैं। १२. इतिहास-सृजन में सहायक : राजस्थान की मध्यकालीन जैन सामग्री व स्रोत जैन इतिहास-सृजन के अतिरिक्त राजस्थान एवं भारत के लौकिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के निर्माण के भी महत्त्वपूर्ण साधन स्रोत हैं। यदि हम ऐतिहासिक स्रोतों में से जैन स्रोतों को पृथक् कर दें तो भारत व राजस्थान के इतिहास में से कई कड़ियाँ लप्त हो जावेंगी और समस्त ऐतिहासिक तथ्य बिखर जायेंगे । यद्यपि जैन अभिलेखों का उद्देश्य सामाजिक एवं कालिक इतिहास का विवेचन करना नहीं था, किन्तु जैन श्रेष्ठी अपने क्षेत्र के वर्णन के साथ राजाओं आदि के नामों का भी उल्लेख करवाते थे, जो अतिशयोक्तिपूर्ण न होकर वस्तुपरक होता था, अतः इतिहास के सही विवेचन में अत्यंत सहायक है । ब्राह्मण पंडितों की तुलना में जैनाचार्यों द्वारा लिखित अभिलेख अधिक तथ्यपूर्ण व प्रामाणिक. होते हैं । यह तथ्य गौरीशंकर ओझा ने भी स्वीकार किया है। कई अजैन अभिलेख १. ओझा, उदयपुर राज्य, पृ० १७५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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