Book Title: Madhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Author(s): Rajesh Jain Mrs
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 492
________________ जैन शास्त्र भंडार : ४६९ माता के प्रांगण में स्थित सूर्य मंदिर में पिछले बाह्य मंडोवर भाग पर पार्श्वनाथ की मूर्ति का अंकन है। आबू के विमल वसहि में कालियादमन, चाणूरवध, तथा लूण वसहि में कृष्णजन्म, दधिमंथन, रास लीला आदि के दृश्य हैं। सांगानेर के सिंधी जैन मंदिर के स्तंभों पर रासलीला एवं कृष्ण के विभिन्न रूपों का अंकन है। हिन्दू देवी-देवताओं को भी जैन धर्म में विविध रूपों में आत्मसात कर लिया गया है। कुबेर, सरस्वती, अंबिका, वैष्णवी आदि की कई प्रतिमाएँ जैन मंदिरों में हैं। महिषमर्दिनी को सच्चियमाता के रूप में समस्त जैनों द्वारा पूजा जाता है। गणेश व भैरव भी जैनियों द्वारा समपूज्य हैं। जैनाचार्यों के अनेकों हिन्दू आचार्यों व पंडितों से शास्त्रार्थ होने के उल्लेख हैं । किन्तु मध्ययुग के जैन धार्मिक आन्दोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि देश के अनेक धार्मिक मतों का खंडन करते हुए भी जैनाचार्यों ने मुस्लिम धर्म के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं कहा और न इनका किसी इस्लामी संत से शास्त्रार्थ होना पाया जाता है। किन्तु हीरविजय, जिनचंद्र आदि के अबुलफजल आदि मुस्लिम संतों एवं विद्वानों से विचार-विमर्श करने के प्रमाण हैं। जैन, मुस्लिम मत के प्रति अपेक्षाकृत सहिष्णु हो रहे। सिद्धराज जयसिंह ने उन लोगों को कड़ा दंड दिया था जिन्होंने मुसलमानों की मस्जिदों को क्षति पहुँचाने का थोड़ा भी विचार किया था। वीर धवल के महामात्य वस्तुपाल ने तो स्वयं राज्य के खर्च से अनेक मस्जिदों का निर्माण तक करा दिया था। ६. संघ शक्ति एवं एकता को प्रोत्साहन : ऋषि मुनि एव देवदर्शनार्थ तीर्थ यात्रा जैन धर्म में संघों के रूप में होती रही। संघ का नायक संघपति कहलाता था, जो गौरवपूर्ण पद माना जाता था। मध्यकाल में जैनाचार्यों के सान्निध्य में अनेकों चातुर्विध संघ यात्राएँ हुई, जो जैन संघ में एकत्व बनाये रखने में सहायक सिद्ध रहीं । स्थानकवासी पंथ के उदय के पश्चात् ये यात्राएं आचार्यों के चातुर्मास वाले स्थानों पर भी होती रहीं । सामाजिकता की वृद्धि, संगठन कौशल, एकता आदि की दृष्टि से जैन संघ को इनका योगदान अति महत्वपूर्ण है। ७. सैनिक, प्रशासनिक एवं राजनीतिक क्षेत्र: ___ राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास में जैन धर्मानुयायी अनेक पराक्रमी पुरुषों, योद्धाओं, प्रशासकों, राजनीतिज्ञों व कूटनीतिज्ञों के उदाहरण हैं, जिन्होंने अपूर्व स्वामी १. श्याम सुन्दर दीक्षित, १३वी, १४वीं शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्य, पृ० ८६ २. गुजराती मध्यकालीन राजपूत इतिहास, पृ० २७३ ३. गुजरात का जैनधर्म, मुनि जिनविजय, पृ० ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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