Book Title: Madhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Author(s): Rajesh Jain Mrs
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 490
________________ जैन शास्त्र भंडार : ४६७ मध्यकाल में जैनाचार्य ही एकमात्र ऐसी प्रेरणा-स्रोत थे, जो कई क्षत्रिय जातियों को उद्बोधित कर हिंसा का परित्याग करवा सके और जैन मत में दीक्षित कर सके । अहिंसा के दर्शन की,हिंसक व युद्ध प्रिय समुदाय पर, अहिंसक तरीके से इतनी बड़ी विजय का विश्व के इतिहास में संभवतः कोई उदाहरण नहीं है । जातीय संस्कार मुश्किल से छूटते हैं, किन्तु मध्यकालीन इतिहास इस बात का साक्षी है कि जैन धर्म को अपनाने के पश्चात् ये क्षत्रिय जातियां पूर्णतः अहिंसक हो गई और अहिंसा के विधिरूप अर्थात् दया, अनुकम्पा, स्नेह, सर्वप्राणियों के प्रति मंगल भावना आदि को कट्टर प्रचारक बन गईं। ___ जैन अहिंसा का स्वरूप मतावलंबियों को युद्ध से विरत रखकर जाति और राष्ट्र की अस्मिता पर आंच आने देने का कभी नहीं रहा। राजस्थान के विभिन्न प्रदेशों में मध्यकाल में कई वीर, सेनापति और कुशल योद्धा हुए हैं, जिन्होंने मातृभूमि की रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति दे दी। जैन अहिंसा-दर्शन का उद्देश्य यह अवश्य रहा कि मनुष्य अपने अंतःकरण की आवाज पर स्वैच्छिक शस्त्र-त्याग करे । किन्तु कर्तव्य पालन और स्वामिभक्ति के आगे जैन वीरों ने अहिंसा के सिद्धांत को भी नकार कर अपूर्व देश प्रेम का परिचय दिया। फिर भी जैन धर्म में अहिंसा का दर्शन सदैव आचरणगत रहा है। मध्यकालीन अभिलेखों में अमारि घोषणाओं के कई लेख और मुगल काल में कई फरमान देखने को मिलते हैं जिनसे स्पष्ट है कि ये जैनधर्म के आचार्यों, श्रावकों, मंत्रियों या श्रेष्ठियों की प्रेरणा से ही निकाले गये थे। ३. लोकोपकारी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन : जैन संस्कृति में धर्म केवल वैयक्तिक आचरण ही नहीं, अपितु सामाजिक आव. श्यकता और समाज-कल्याण व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण घटक भी है। अपरिग्रह के दर्शन के भी २ फलितार्थ हैं, पहला-स्वयं के निर्वाह लायक अर्थोपार्जन और दूसरा अपनी पूर्ण क्षमता से न्यायपूर्वक अपने व दूसरों के निर्वाह के लायक अर्थोपार्जन । दूसरा अर्थ ही जैन साधुओं का अभीष्ट रहा । इसके अनुसार स्वयं के निर्वाह के उपरान्त शेष सेवा, दान, दया आदि की मान्यतानुसार व्यय होना चाहिए। एतदर्थ आहार-दान, ज्ञानदान, औषधदान और अभय-दान, शास्त्रोक्त दान है। इस प्रकार के औचित्यपूर्ण दर्शन के प्रचार ने जैन समाज में लोकोपकारी प्रवृत्तियों को हमेशा जीवित रखा । सामान्यतः जैन समाज विवेच्य काल में आर्थिक रूप से सम्पन्न था । सात्विक जीवन व्यतीत करने के कारण उनकी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ न्यूनतम होती थीं, अतः जैनाचार्यों के उद्बोधन व समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप लोक कल्याणकारी कार्यों में जैन वर्ग हमेशा प्रवृत्त रहा। चिकित्सालय, पाठशालाएँ, कुएँ, बावड़ियाँ, छात्रवृत्ति, अकाल व बाढ़ के समय सहायता, धर्मशालाएँ, निर्धनों की सहायता आदि विविध प्रकार के मानवोपकारी कार्य प्रारम्भ से हो किये जाते रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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