Book Title: Madhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Author(s): Rajesh Jain Mrs
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 405
________________ ३८२ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म १३५४ ई० में तरुणप्रभ सूरि ने “षडावश्यक वालावबोध" नामक पहली रचना की, 'जिससे प्रवाहबद्ध गद्य का स्वरूप स्पष्ट होता है। इसके पश्चात् से ही बालावबोध शैली का खूब विकास हुआ। १५वीं शताब्दी-इस शताब्दी से गद्य के नमूने प्रचुरता से उपलब्ध होते हैं । १४२१ ई० में माणिक्यचन्द्रसूरि ने "पृथ्वीचन्द्र चरित्र" गद्य में रचा। इसलिये इस कृति का नाम "वागविलास" रखा गया। इस शताब्दी के पूर्वाद्ध में ऐसा वर्णनात्मक और तुकान्त साहित्यिक गद्य बहुत रचा गया । सोमसुन्दर सूरि ने "उपदेशमाला" और "योगशास्त्र" बालावबोध की रचना की। १४२८ ई० में "कालिकाचार्य कथा" लिखी गई। मेरुतुङ्ग सूरि ने "व्याकरण चतुष्क बालावबोध", साधु रत्नसूरि ने "नवतत्व बालावबोध, दयासिंह ने "संग्रहणो" और "क्षेत्र समास बालावबोध" की रचना की। १४३९ ई० में सोमसुन्दर सूरि ने “षष्ठी शतक बालावबोध" लिखा। इसी प्रकार १४४० ई० की "तपागच्छ गुर्वावली" भी उपलब्ध है, जो इस शताब्दी के ऐतिहासिक गद्य का उत्तम उदाहरण है । १४३४ ई० में जिनसागर सूरि ने “षष्ठीशतक बालावबोध' लिखा। १४४४ ई० में हेमहंस गणी का 'षडावश्यक बालावबोध, १४४४ ई० में ही माणिक्य सुन्दर गणी का "भवभावना बालावबोध", जिनसूरि रचित "गौतमपृच्छा बालावबोध", १४५६ ई० में संवेगदेव गणी द्वारा "पिंडविशुद्धि बालावबोध", १४५८ ई० में धर्मदेव गणी द्वारा “षष्ठी शतक बालावबोध", १४६० ई० में आसचन्द्र द्वारा “कल्पसूत्र बालावबोध", १४६१ ई० में जयचन्द्र सूरि द्वारा "चऊ सरण बालावबोध", उदय बल्लभ सूरि द्वारा "क्षेत्र समास बालावबोध", कमल संयम उपाध्याय द्वारा "सिद्धान्त सारोद्धार" आदि रचे गये । १४६८ ई० में नन्न सूरि द्वारा "उपदेशमाला बालावबोध" की रचना की गई। १४६१ ई० से १४७८ ई० के मध्य मेरुसुन्दर ने "शीलोपदेशमाला", "पुष्पमाला", "षडावश्यक", “षष्ठीशतक", "कपूर प्रकर", "योगशास्त्र", "भक्तामर" आदि २० ग्रन्थों के बालावबोध रचे । इन्होंने केवल जैन आगम और प्रकरणों की ही नहीं, अपितु संस्कृत के अलंकार ग्रन्थ "विदग्ध मुख मंडन"" और "वाग्भटालंकार"६ तथा छंदग्रन्थ "व्रतरत्नाकर" की भी भाषा टीका बालाबबोध रूप में बनाई। इनका एक स्वतंत्र "प्रश्नोत्तर ग्रन्थ' भी १. अगरचन्द नाहटा के ग्रन्थ भण्डार में संग्रहीत : २. राजैसा, प० २२६ । ३. रायल एशियाटिक सोसाइटी, लन्दन से प्र० । ४. राजैसा, पृ० २२७ । ५. श्री रासूस्मृग, पृ० ७०७ । ६. जैसाओइ, पृ० ४८६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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