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जैन साहित्य एवं साहित्यकार: ४१५
५२. राजमल : - इन्होंने 'समयसार कलश' नामक संस्कृत ग्रन्थ पर हिन्दी गद्य मैं एक पुस्तक लिखी ।'
५३. पं० अखयराज श्रीमाल : - इन्होंने १७वीं शताब्दी में 'विषापहार स्तोत्र' पर हिन्दी गद्य में व्याख्या तथा 'चतुर्दश गुणस्थान चर्चा' हिन्दी गद्य में ही जयपुर -में रची | 2
५४. जीवराज : - इन्होंने १८०७ ई० में बीकानेर में 'मौन एकादशी कथा' लिखी 13
५५. किशन सिंह : - इन्होंने 'रात्रि भोजन कथा' की रचना की ।४
५६. ब्रह्मरायमल :- इन्होंने हिन्दी में 'छंदशास्त्र' व 'पिंगल' की रचना की । ५ ५७. भगवती दास : - इन्होंने १७वीं शताब्दी में २० से भी अधिक हिन्दी कृतियाँ सृजित कीं।
निष्कर्ष एवं समालोचना :
(१) जैन साहित्यकारों के लिये साहित्य त्रिशुद्ध कला को वस्तु नहीं, अपितु धार्मिक आचार की पवित्रता और साधना का एक अंग बन कर रहा । अतः अभिव्यक्ति में सरलता, सुबोधता और सहजता का हमेशा आग्रह रहा । जैनाचार्यों की प्रशंसनीय विशेषता यह रही कि वे हमेशा जनपदीय भाषाओं को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते रहे । लोकोन्नयन मुख्य उद्देश्य होने के कारण भी, राजस्थानी जैन साहित्य - सदैव प्रचलित लोक भाषा में ही रचा जाता रहा ।
(२) भाषा के स्वरूप का परिवर्तन क्रम विभिन्न कालों में रचित साहित्य से स्पष्ट हो जाता है । पूर्व मध्यकाल में प्राकृत साहित्य सर्वाधिक रचा गया । १०वीं शताब्दी से लोकभाषा में अपभ्रंश का स्वरूप विकसित होने से, जैन साहित्य इस माध्यम में भी निबद्ध किया गया । पांडित्य, विद्वत्ता एवं साहित्यिक अभिव्यक्ति के क्षेत्र में संस्कृत देश में सर्वत्र लोकप्रिय थी, अतः ८वीं से १२वीं शताब्दी के मध्य जैन संस्कृत साहित्य भी विपुल परिमाण में सृजित हुआ । अपभ्रंश से कालक्रम में विभिन्न स्थानीय व प्रादेशिक भाषाएँ विकसित होने लगीं, जिसका स्पष्ट प्रतिबिम्ब १२वीं शताब्दी में सृजित राजस्थानी
१. वीरवाणी, १, पृ० ७ ।
२. वही, ३, पृ० ९ ।
३. राभा, ३, क्र० २ ॥
४. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० २१९ ।
५. अने०, ४, क्र० २ ॥
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