Book Title: Lonkashah Mat Samarthan
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 11
________________ [10] ******************************************* कि जीव हिंसा इस जीवन के लिए अर्थात् इस जीवन को नीरोग और चिरंजीवी बनाने के लिए, परिवंदन प्रशंसा के लिए, मान पूजा प्रतिष्ठा के लिए, जन्म-मरण से छूटने के लिए और दुःखों का नाश करने के लिए अर्थात् धर्म के नाम पर भी यदि कोई किसी प्रकार की हिंसा आरम्भ समारंभ आदि करता है, दूसरों से करवाता है और आरंभ करते हुए दूसरों व्यक्तियों का अनुमोदन भी करता है तो उस आरंभ करने, करवाने एवं अनुमोदन करने वाले जीव को किस फल की प्राप्ति होती है, इसके लिए प्रभु फरमाते हैं “तं से अहियाए तं से अबोहिए" वह आरंभ (हिंसा) उस आरम्भ करने वाले पुरुष के लिए अहित कर होती है, उस के बोधि (सम्यक्त्व) का नाश करने वाली होती है अर्थात् जो पुरुष (साधक) छह काय में से किसी भी काय का आरम्भ करता है, उससे उसको हिंसा करने का पाप ही नहीं लगना, बल्कि प्रभु फरमाते हैं कि ऐसे हिंसा करने वाले व्यक्ति को भविष्य में बोधि (समकित) की प्राप्ति होना भी दुर्लभ हो जाता है। धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा (आरम्भ) का तो ओर भी कटुफल होना प्रभु ने फरमाया है। प्रश्न होता है जैन धर्म जो अहिंसा प्रधान है, जिसका मूल ही अहिंसा पर आधारित है। उस धर्म में फिर हिंसा आरंभ-सम्मारंभ और वह भी धर्म के नाम पर क्यों और कब से चालू हुई। प्रभु महावीर के निवार्ण के लगभग एक हजार वर्ष तक निर्ग्रन्थ परम्परा बराबर चलती रही। इसके पश्चात् धीरे-धीरे संघ में मत भिन्नता होने लगी। किसी समर्थ महापुरुष के अभाव के कारण उस मत भिन्नता ने कदाग्रह का रूप धारण कर लिया, जिससे संघ में शिथिलता, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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