Book Title: Lokvibhag
Author(s): Sinhsuri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 208
________________ -८.५८ ] अष्टम विभाग: [ १५३ पुढ विदयमेगूणं अद्धकयं वग्गियं च मूलजुदं' । अट्ठगुणं चउसहियं पुढवदयताडिदम्मि' पुढविधणं ।। श्रे ४४२०।२६८४।१४७६।७००/२६०१६०१४ ॥ सेढीणं विच्चाले पुप्फपइण्णय इव द्विया णिरया । होंति पइण्णयणामा सेढिदयहीणरासिसमा ॥ ५ पंचमभागपमाणा णिरयाणं होंति संखवित्थारा। सेसचउपंचभागा असंखवित्थारया णिरया ॥ ६ इंदयसेढीबद्ध पद्दण्णयाणं कमेण वित्थारा । संखेज्जमसंखेज्जं उभयं च य जोयणाण हवे ॥ ७ (४९÷४८×४ =३८८ इतना होता है । अन्तिम ( १३ वें ) पटलकी प्रत्येक दिशा और विदिशामें क्रमशः ३७ और ३६ श्रेणीबद्ध बिल हैं । इन दोनों को जोड़कर ४ से गुणित करनेपर ( ३७+ ३६) ×४=२९२; इतना मुखका प्रमाण होता है। अब एक कम गच्छको चयसे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उसे भूमिमेंसे कम कर देने और मुखमें जोड़ देनेपर मुखका और भूमिका प्रमाण निम्न प्रकार होता है - ३८८ - { ( १३ - १ ) x८ } = २९२ मुख; २९२ + {(१३ - १ ) × ८} =३८८ भूमि ; इन दोनों को जोड़कर और फिर आधा करके गच्छसे गुणित कर देनेपर प्रथम पृथिवीके समस्त श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण इस प्रकार प्राप्त हो जाता है - ( ३८८+२९२)×१३= ४४२० सब श्रेणीबद्ध । इसी नियमके अनुसार सातों पृथिवियों के भी समस्त श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण लाया जा सकता है । जैसे- यहां भूमि ३८९ ( इन्द्रक सहित ) और मुख ५ है; ३८९-{(४९-१)×८} =५ मुख; ५+{ (४९-१)×८=३८९भूमि (३८३+५)×४९=९६५३; इन्द्र (४९) सहित समस्त श्रेणीबद्ध । विवक्षित पृथिवीके इन्द्रक बिलोंकी जितनी संख्या हो उसमेंसे एक कम करके आधा कर दे । तत्पश्चात् उसका वर्ग करके प्राप्त राशिमें वर्गमूलको मिला दे । पुनः उसे आठसे गुणित करके व उसमें चार अंकोंको और मिलाकर विवक्षित पृथिवीकी इन्द्रकसंख्या से गुणा करे । इस प्रकारसे उस पृथिवीके समस्त श्रेणीबद्धोंकी संख्या प्राप्त हो जाती है ॥ ४ ॥ २ उदाहरण - प्रथम पृथिवीमें १३ इन्द्रक बिल हैं । अत: - { (१३- ' ) ' + (V(३-१)?×८ =३३६; (३३६+४) १३ = ४४२० प्रथम पृथिवीके समस्त श्रेणीबद्ध; २६८४ द्वि. पृथिवीके समस्त श्रे. ब. ; १४७६ तृ. पृ. के समस्त श्रे. ब. ; ७०० च. पू. के समस्त श्रे. ब. २६०पं. पू. के समस्त श्रे. ब. ; ६० छठी पृ. के समस्त श्रे. ब. ; ४ सातवीं पृ. के समस्त श्रेणीबद्ध | श्रेणीबद्ध बिलोंके अन्तरालमें इधर उधर विखरे हुए पुष्पोंके समान जो नारक बिल स्थित हैं वे प्रकीर्णक नामक बिल कहे जाते हैं । समस्त बिलोंकी संख्यामेंसे श्रेणीबद्ध और इन्द्रक बिलोंकी संख्याको कम कर देनेपर जो राशि अवशिष्ट रहती है उतना उन प्रकीर्णक बिलोंका प्रमाण समझना चाहिये। जैसे- प्रथम पृथिवी में समस्त बिल ३०००००० हैं, अत एव ३००००००- (४४२० + १३ ) = २९९५५६७ प्रथम पथिवीके समस्त प्रकीर्णक बिल ॥ ५ ॥ समस्त नारक बिलों में पांचवें भाग ( ३ ) प्रमाण नारक बिल संख्यात योजन विस्तारवाले और शेष चार बटे पांच भाग ( 2 ) प्रमाण बिल असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं ।। ६ ।। इन्द्रक बिलोंका विस्तार संख्यात योजन, श्रेणीबद्ध बिलोंका असंख्यात योजन, तथा प्रकीर्णक बिलोंका उभय अर्थात् उनमें कितने ही बिलोंका विस्तार संख्यात योजन और कितने ही बिलोंका विस्तार १ आप मुलजुजुदं । २ त्रि. सा. 'ताडियंच । ३ त्रि. सा. बद्धा पइण्ण । को. २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312