Book Title: Lokvibhag
Author(s): Sinhsuri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 280
________________ - ११.५४] एकादशो विभागः भव्येभ्यः सुरमानुषोरुसदसि श्रीवर्धमानार्हता यत्प्रोक्तं जगतो विधानमखिलं ज्ञातं ' सुधर्मादिभिः । आचार्यावलिकागतं विरचितं तत्सिंहसूरविणा भाषायाः परिवर्तनेन निपुणैः संमान्यतां साधुभिः ॥ ५१ वैश्वे स्थिते रविसुते' वृषभे च जीवे राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे । ग्रामे च पाटलिकनामनि पाणराष्ट्र शास्त्र पुरा लिखितवान् मुनिसर्वनन्दी ॥ ५२ संवत्सरे तु द्वाविंशे काञ्चीशः सिंहवर्मणः । अशीत्यग्रे शकाब्दानां सिद्धमेतच्छतत्रये ॥ ५३ । ३८० । पञ्चादश शतान्याहुः षट्त्रंशदधिकानि वै । शास्त्रस्य संग्रहस्त्वेदं ( ? ) छन्दसानुष्टुभेन च ॥ ५४ इति लोकविभागे मोक्षविभागो नामैकादशं प्रकरणं समाप्तम् ॥११॥ देवों और मनुष्योंकी महती सभा (समवसरण ) में श्री वर्धमान जिनेन्द्रने भव्य जीवों के लिये जिस समस्त लोकके विधानका व्याख्यान किया था तथा उनसे सुधर्म आदि गणधरोंने जिसे ज्ञात किया था, आचार्यपरम्परासे प्राप्त हुए उसी लोकके विधानकी रचना सिंहसूर ऋषिने भाषाका परिवर्तन मात्र करके की है । विद्वान् साधु उसका सम्मान करें ।। ५१ । जब शनिश्चर उत्तराषाढा नक्षत्रके ऊपर, बृहस्पति वृषराशिके ऊपर तथा चन्द्रमा शुक्ल पक्षका आश्रय पाकर उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के ऊपर स्थित था तब पाणराष्ट्र के भीतर पाटलिक नामके ग्राम में पूर्व में सर्वनन्दी मुनिने शास्त्रको लिखा था ।। ५२ ।। यह कार्य कांची नगरीके अधिपति सिंहवर्मा २२वें संवत्सर तथा शक संवत् तीन सौ अस्सी ( ३८० ) में पूर्ण हुआ था ।। ५३ ।। यह शास्त्रका संग्रह अनुष्टुप् छन्दसे पन्द्रह सौ छत्तीस ( १५३६ ) श्लोक प्रमाण है ॥५४॥ इस प्रकार लोकविभागमें मोक्षविभाग नामका यह ग्यारहवां प्रकरण समाप्त हुआ ।। ११ ।। १५ ज्ञानं । २ प रवित्सुते । ३ ५ वर्मणा । लो. वि. २९ [ २२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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