Book Title: Lokvibhag
Author(s): Sinhsuri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 279
________________ २२४ ] लोकविभागः [११.४७ आ लोकान्तात्ततः सप्त एवं ताः सप्तरज्जवः। ऊर्ध्वः संख्यगुणो मध्यावधोलोकोऽधिकस्ततः॥४७ चतुर्थ्या समविस्तारो ब्रह्मलोकश्च भाषितः । प्रथमापृथिवीकल्पो आद्यो चानुत्तराण्यपि ॥४८ द्वितीयापृथिवीकल्पौ द्वितीयौ युगपत् स्थितौ । ग्रेवेयाणि तथैव स्युः शेषाणामपि योजयेत् ॥ ४९ उक्तं च त्रयम् [ कत्तिगेयाणु. ११८-१९ ]सत्तेक्क पंच एक्क य मूले मज्झे तहेव बम्हंते । लोयंते रज्जूओ पुव्वावरदो य वित्थारो ॥७ ।७।१।५।१। उत्तरदक्खिणदो पुण सत्त वि रज्जू हवेइ सव्वत्थ । उड्ढो चोद्दस रज्जू सत्त वि रज्जू पुणो' लोओ [त्रि. सा. ४५८]मेरुतलादु दिवढं दिवड्ढ दलछक्क एक्करज्जुभ्मि । कप्पाणमट्ठजुगला गेवेज्जादी य होंति कमे। 'युक्तः प्राणिदयागुणेन विमलः सत्यादिभिश्च व्रतः मिथ्यादृष्टिकषायनिर्जयशुचिजित्वेन्द्रियाणां वशम् । दग्ध्वा दीप्ततपोऽग्निना विरचितं कर्मापि सर्व मुनिः सिद्धि याति विहाय जन्मगहनं शार्दूलविक्रीडितम् ॥५० इस प्रकार ऊर्वलोककी ऊंचाईमें वे सात (७) राजु कही गई हैं। इसी प्रकार मेरुतलसे नीचे लोकके अन्त तक भी सात ही राजु कही गई हैं। मध्यलोकसे ऊर्ध्वलोक संख्यात गुणा तथा अधोलोक उससे (ऊर्ध्वलोकसे) अधिक है ।। ४६-४७ ।। ब्रह्मलोकका विस्तार चतुर्थ पृथिवीके बराबर कहा गया है। आदिके प्रथम दो कल्प और अनुत्तर विमान भी प्रथम पृथिवीके बराबर विस्तृत हैं ।। ४८ ॥ युगपत् स्थित आगेके दो कल्प और अवेयक द्वितीय पृथिवीके समान विस्तारवाले हैं । इसी प्रकार वह विस्तारयोजना शेष कल्पोंके भी करना चाहिये ।। ४९ ।। इस विषयमें निम्न तीन गाथायें कही गई हैं-- लोकका पूर्व-पश्चिम विस्तार मूलमें सात (७), मध्यमें एक (१), ब्रह्म कल्पके अन्तमें पांच (५) और लोकान्तमें एक (१) राजु मात्र है।। ७ ॥ उसका उत्तर-दक्षिण विस्तार सर्वत्र ही सात राजु है। ऊंचा वह चौदह राजु है । अधोलोक और ऊर्ध्वलोक सात सात राजु ऊंचे हैं ।। ८॥ मेरुके तलभागसे डेढ़ (३),फिर डेढ़ (३),आधे आधे छह (३,३,३,३,३,३) और एक (१) इस प्रकार क्रमसे इतने राजुओंमें आठ कल्पयुगल और ग्रेवेयकादि स्थित हैं ।।९।। जीवदया गुणसे सहित, सत्य आदि निर्मल व्रतोंसे सम्पन्न और मिथ्यात्व एवं कषायोंको पूर्णतया जीत लेनेसे पवित्रताको प्राप्त हुआ मुनि इन्द्रियोंको जीतकर तथा दीप्ततपरूप अग्निके द्वारा चिरसंचित सब कर्मको जलाकर सिंहकी क्रीड़ाके समान – सिंह जैसे पराक्रमके द्वाराभयानक संसारको छोड़कर सिद्धिको प्राप्त हो जाता है ।। ५० ।। १२ घणो। २ प युक्ता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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