Book Title: Lokvibhag
Author(s): Sinhsuri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 272
________________ -१०.३४०] दशमो विभागः [२१७ सुखस्पर्शसुखालोकसुगन्धिविमलोज्ज्वलाः । देवानां शुचयो देहा वैडूर्यमणिनिर्मलाः ॥३२९ दृष्ट्वा दिव्यां विभूति च सर्वतश्चित्तहर्षिणीम् । प्रीतिभारसमाक्रान्ता विह्वला इव ते क्षणम् ॥३३० प्रत्यक्षं फलमालोक्य धर्मे संवृद्धभक्तयः । तैश्चोपबंहिता देवैः प्रथमं धर्ममोडते ॥३३१ स्नात्वा ह्रदं प्रविश्यागे अभिषेकमवाप्य च । अलंकारसभां गत्वा दिव्यालंकारभूषिताः ॥३३२ व्यवसायसभां भूयो गत्वा पूजाक्रियोद्यताः । नन्दासु शुभभृङ्गारान् पूरयित्वामलोदकः ॥३३३ चलत्केतुपताकाद्याश्छत्रचामरसंवृताः । सुगन्धिसुमनोवासवर्णचूर्णविलेपनाः ॥ ३३४ कृत्वाभिषेक संपूज्य नत्वा च परमार्हतः । ततः सुदृष्टयो देवा: विषयानुपभुञ्जते ॥३३५ देवानामुदितं श्रुत्वा सुरा मिथ्यादृशोऽपि च । प्रायेण कुर्वते पूजामहतां सुरबोधिताः ॥३३६ दिव्याभरणदीप्ताङ्गा यथेष्टशुभविक्रियाः । चित्रत्ति]नेत्रहरात्यन्तचारुरूपसमन्विताः॥३३७ देवोपचारसिद्धाभिनित्ययौवनचारुभिः । प्रियाभिरतिरक्ताभिः प्राप्नुवन्ति रति सुराः ॥३३८ प्रतिकारमनालोक्य स्नेहसौभाग्यसाधिकम् । कृतकाचारनिर्मुक्तं शुद्धं प्रेम सुरालये ॥३३९ अन्योन्यप्रीतिसद्धावं विन्दन्तोऽवधिनाधिकम् । देवा देव्यश्च कामान्धा न विदन्ति गतं क्षणम् ॥३४० हुएके समान उत्पन्न होते हैं ॥ ३२८ ॥ इन देवोंके पवित्र शरीर सुखकारक स्पर्श, सुखोत्पादक रूप एवं सुगन्ध गन्धसे सहित; निर्मल, उज्वल तथा वैडूर्य मणिके समान निर्मल होते हैं ॥३२९।। वे देव सब ओरसे चित्तको हर्षित करनेवाली दिव्य विभूतिको देखकर प्रेमके भारसे सहित होते हुए क्षणभरके लिये विह्वल-से हो जाते हैं ।।३३०।। वे धर्मके इस प्रत्यक्ष फलको देखकर धर्मके विषयमें वृद्धिको प्राप्त हुई भक्तिसे संयुक्त होते हुए उन देवोंसे उत्साहित होकर पहिले धर्मकार्यको करते हैं ।। ३३१॥ वे प्रथमतः सरोवर में प्रविष्ट होकर स्नान करते हैं और फिर अभिषेकको प्राप्त होकर अलंकारगृहमें जाते हैं एवं वहां दिव्य अलंकारोंको धारण करते हैं। फिर व्यवसायसभामें जाकर वे पूजाकार्यमें उद्यत होते हुए नंदा वापिकाओंमें निर्मल जलसे उत्तम झारियोंको भरते हैं । तपश्चात् फहराती हुई ध्वजा-पताका आदिसे सहित, छत्र व चामरोंसे व्याप्त और सुगन्धित फूलों एवं उत्तम वर्णवाले चूर्णोसे लिप्त की गई जिन भगवान्की प्रतिमाओंका अभिषेक व पूजन करके उन्हें नमस्कार करते हैं। इसके पश्चात् सम्यग्दृष्टि देव विषयोंका अनुभव करते हैं ।। ३३२-३३५ ॥ देवोंके अभ्युदयको सुनकर मिथ्यादृष्टि देव भी प्रायः अन्य देवोंसे सम्बोधित होकर जिनपूजाको करते हैं ।। ३३६ ॥ दिव्य अलंकारोंसे देदीप्यमान शरीरके धारक, इच्छित उत्तम विक्रियासे सहित और मन एवं नेत्रोंको आनन्द देनेवाले अतिशय सुन्दर रूपसे सम्पन्न वे देव देवोपचारसे सिद्ध, शाश्वतिक यौवनसे सुन्दर और अतिशय अनुराग रखनेवाली प्रियाओंके साथ रतिको प्राप्त होते हैं ।।३३७-३३८।। स्वर्गमें प्रतीकारको न देखकर - उसकी अपेक्षा न कर- स्नेह एवं सौभाग्यसे अधिक और कृत्रिम व्यवहारसे रहित शुद्ध प्रेम है ।।३३९॥ वे देव और देवियां अवधिज्ञानसे अधिक पारस्परिक प्रेमके सद्भावको जानकर काममें आसक्त १ प संवृद्धयभक्तयः । २ सादिकं । लो. वि. २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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